________________ सूत्रकार के "-अड्ढे-'" इस सांकेतिक पाठ से "-दित्ते, वित्थिण्ण-विउलभवण-सयणासण-जाण-वाहणाइण्णे, बहुधण-बहुजायरूवरयए, आओगपओगसंपउत्ते, विच्छड्डियविउलभत्तपाणे,बहुदासीदासगोमहिसगवेलयप्पभूए, बहुजणस्स अपरिभूए-" [छाया-दीप्तो, विस्तीर्ण-विपुल-भवन-शयनासन यान-वाहनाकीर्णो, बहुधन-बहुजातरूपरजत, आयोग-प्रयोगसंप्रयुक्तो, विच्छर्दित-विपुल-भक्तपानो, बहुदासीदास-गोमहिषगवेलकप्रभूतो, बहुजनस्य अपरिभूतः। यह ग्रहण करना। इस का अर्थ निम्नोक्त है वह विजयमित्र सार्थवाह दीप्त तेजस्वी, विस्तृत और विपुल भवन (मकान), शयन (शय्या), और आसन (चौंकी आदि), यान (गाड़ी आदि) और वाहन (घोड़े आदि) तथा धन, सुवर्ण और रजत (चान्दी) की बहुलता से युक्त था, अधमर्गों-ऋण लेने वाले को वह अनेक प्रकार से ब्याज पर रुपया दिया करता था। उसके वहां भोजन करने के अनन्तर भी बहुत सा अन्न बाकी बच जाता था, उसके घर में दास, दासी आदि पुरुष और गाय, भैंस और बकरी आदि पशु थे, तथा वह बहुतों से भी पराभव को प्राप्त नहीं हो पाता था अथवा जनता में वह सशक्त एवं सम्माननीय था। -"-अहीण-." इस संकेत से वह समस्त पाठ जो कि प्रथम अध्ययन में वर्णित मृगादेवी के सम्बन्ध में वर्णित किया गया है, उसका ग्रहण समझना। ___"-अहीण. जाव सुरूवे-' इस पाठ के "जाव-यावत्" पद से- "अहीण पडिपुण्ण-पंचिंदियसरीरे, लक्खणवंजणगुणोववेए, माणुम्माणप्पमाणपडिपुण्णसुजायसव्वंगसुंदरंगे, ससिसोमाकारे, कंते, पियदंसणे-'" [छाया-अहीन परिपूर्णपञ्चेन्द्रियशरीरः, लक्षणव्यंजनगुणोपेतः, मानोन्मान-प्रमाणपरिपूर्णसुजातसर्वांगसुन्दरांग: शशिसौम्याकारः, कान्तः, प्रियदर्शनः] यह समस्त पाठ ग्रहण करना अर्थात् वह उज्झितक कुमार कैसा था, इस का वर्णन इस पाठ में किया गया है। तात्पर्य यह है कि उसकी पांचों इन्द्रियां सम्पूर्ण एवं निर्दोष थीं और उसका शरीर लक्षण, व्यंजन और गुणों से युक्त था, तथा मान, उन्मान और प्रमाण से परिपूर्ण एवं अंगोपांग-गत सौन्दर्य से भरपूर था, वह चन्द्रमा के समान सौम्य (शान्त), कान्त-मनोहर और प्रियदर्शन था, अर्थात् कुमार उज्झितक में शरीर के सभी शुभ लक्षण विद्यमान थे। ... 1. लक्षण-विद्या, धन और प्रभुत्व आदि के परिचायक हस्तगत (हाथ की रेखाओं में बने हुए) स्वस्तिक आदि ही यहां पर लक्षण शब्द से अभिप्रेत हैं। व्यंजन-शरीरगत मस्सा, तिलक आदि चिन्हों की व्यंजन संज्ञा है। गुण-विनय, सुशीलता और सेवा-भाव आदि गुण कहे जाते हैं। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [243