________________ में अष्टविध आलिंगन वर्णित हुए हैं, उन आठों में प्रत्येक के आठ-आठ भेद होने से 64 भेद गणिका के गुण कहलाते हैं। वात्स्यायनोक्तान्यालिंगनादीन्यष्टौ वस्तूनि, तानि च प्रत्येकमष्टभेदत्वाच्चतुःषष्टिर्भवन्ति चतुःषष्ट्या गणिकागुणैरुपेता या सा तथेति वृत्तिकारः। "एगूणतीसविसेसे रममाणी-एकोनत्रिंशद्विशेष्यां रममाणा-" यहां पठित जो विशेष पद है उसका अर्थ है-विषय अथवा विषय के गुण / विषय के गुण 29 होते हैं, इन में कामध्वजा गणिका रमण कर रही थी अर्थात् गणिका विषय के 29 गुणों से सम्पन्नं थी। वात्स्यायन कामसूत्र आदि ग्रन्थों में विषयगुणों का विस्तृत विवेचन किया गया है। "-एक्कवीसरतिगुणप्पहाणा-एकविंशतिरतिगुणप्रधाना-" अर्थात् कामध्वजा गणिका 21 रतिगुणों में प्रधान-निपुण थी। मोहनीयकर्म की उस प्रकृति का नाम रति है जिस के उदय से भोग में अनुरक्ति उत्पन्न होती है, अथवा मैथुनक्रीड़ा का नाम भी रति है। रति के गुण (भेद) 21 होते हैं, उन में यह गणिका निपुण थी।रतिगुणों का सांगोपांग वर्णन वात्स्यायन कामसूत्र आदि ग्रन्थों में किया गया है। "-बत्तीस-पुरिसोवयार-कुसला-द्वाविंशत्-पुरुषोपचारकुशला-" अर्थात् पुरुषों के 32 उपचारों में वह कामध्वजा गणिका कुशल थी। उपचार का अर्थ होता है-आदर, (सत्कार अथवा सभ्योचित व्यवहार। इन उपचारों में वह गणिका सिद्धहस्त थी। उपचारों का सविस्तृत व्याख्यान वात्स्यायन कामसूत्र आदि ग्रन्थों में किया गया है। "-नवंगसुत्तपडिबोहिया-प्रतिबोधितसुप्तनवांगा-" अर्थात् जगा लिए हैं सोए हुए नवांग जिसने, तात्पर्य यह है कि बाल्यकाल में सोए हुए नव अंग जिस के इस समय जागे हुए हैं अथवा जिसके नेत्र प्रभृति नव अंग पूर्णरूप से जागृत हैं। इसका भावार्थ यह है कि मानवी व्यक्ति की बाल्य अवस्था में उस के दो कान, दो नेत्र, दो नासिका, एक जिह्वा, एक त्वचा और एक मन ये नौ अंग जागे हुए नहीं होते अर्थात् इन में किसी प्रकार का विकार (कामचेष्टा) उत्पन्न हुआ नहीं होता, ये उस समय निर्विकार-विकार से रहित होते हैं। यहां निर्विकार की सुप्त और विकृत की प्रबुद्ध-जागृत संज्ञा है। जिस समय युवावस्था का आगमन होता है, उस समय ये नौ ही अंग जाग उठते हैं, अर्थात् इन में विकार उत्पन्न हो जाता है। इस से सूत्रकार ने उक्त विशेषण द्वारा कामध्वजा को नवयुवती प्रमाणित किया है। "-अट्ठारस-देसीभासा-विसारया-अष्टादशदेशीभाषा-विशारदा-"अर्थात् 1 1. द्वे श्रोत्रे, द्वे चक्षुषी, द्वे घ्राणे, एका जिव्हा, एक त्वक्, एकं च मनः इत्येतानि नवांगानि सुप्तानीव सुप्तानि यौवनेन प्रतिबोधितानि-स्वार्थग्रहणपटुतां प्रापितानि यस्याः सा तथा (वृत्तिकारः)। . 238 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध