________________ न्धर्वनाट्यकुशला, संगतगत सुन्दरस्तन उच्छ्रितध्वजा, सहस्रलाभा, वितीर्णछत्रचामरबालव्यजनिका; कीरथप्रजाता चाप्यभवत् / बहूनां गणिकासहस्राणामाधिपत्यं यावत् विहरति.। पदार्थ-भंते !-हे भगवन् ! जति णं-यदि / समणेणं-श्रमण / जाव-यावत् / संपत्तेणं-संप्राप्त, भगवान् महावीर ने। दुहविवागाणं-दु:ख विपाक के। पढमस्स-प्रथम। अज्झयणस्स-अध्ययन का। अयमढे-यह पूर्वोक्त अर्थ / पण्णत्ते-प्रतिपादन किया है तो। भंते!-हे भगवन् ! समणेणं-श्रमण / जावयावत्। संपत्तेणं-मोक्ष प्राप्त भगवान् महावीर ने। दुहविवागाणं-दुःख विपाक गत। दोच्चस्स-दूसरे। अज्झयणस्स-अध्ययन का। के अट्ठ-क्या अर्थ। पण्णत्ते-कथन किया है। तते णं-तदनन्तर / से-वह। सुहम्मे अणगारे-सुधर्मा अनगार-श्री सुधर्मा स्वामी। जंबू-अणगारं-जम्बू अनगार के प्रति / एवं वयासीइस प्रकार बोले। एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। जंबू !-हे जम्बू ! तेणं कालेणं-उस काल में तथा। तेणं समएणं-उस समय में / वाणियग्गामे-वाणिज ग्राम / णाम-नामक / नगरे-नगर ।होत्था-था। रिद्धजो कि समृद्धि पूर्ण था। तस्स णं-उस। वाणियग्गामस्स-वाणिज ग्राम के। उत्तरपरत्थिमे-उत्तर पूर्व। दिसिभाए-दिशा के मध्य भाग, अर्थात् ईशान कोण में। दूतिपलासे-दूति पलाश। णाम-नाम का। उजाणे-उद्यान। होत्था-था। तत्थ णं-उस। दूइपलासे-दूतिपलाश उद्यान में। सुहम्मस्स-सुधर्मा नाम के। जक्खस्स-यक्ष का। जक्खायतणे-यक्षायतन / होत्था-था। तत्थ णं वाणियग्गामे-उस वाणिजग्राम नामक नगर में। मित्ते-मित्र। णाम-नाम का। राया होत्था-राजा था। वण्णओ-वर्णक वर्णन प्रकरण पूर्ववत् जानना। तस्स णं-उस। मित्तस्स रणो-मित्र राजा की। सिरी णाम-श्री नाम की। देवी-देवीपटराणी। होत्था-थी। वण्णओ-वर्णन पूर्ववत् जानना। तत्थ णं वाणियग्गामे-उस वाणिज ग्राम नगर में। अहीण-सम्पूर्ण पंचेन्द्रियों से युक्त शरीर वाली। २जाव-यावत् / सुरूवा-परम सुन्दरी। बावत्तरीकलापंडिया-७२कलाओं में प्रवीण / चउसट्ठिगणिया-गुणोववेया-६४ गणिका-गुणों से युक्त। एगूणतीसविसेसे-२९ विशेषों में। रममाणी-रमण करने वाली। एक्कवीसरतिगुणप्पहाणा-२१ प्रकार 1. "-रिद्धस्थिमियसमिद्धे-ऋद्धिस्तिमितसमृद्धम्" ऋद्धं-नभः स्पर्शि-बहुल-प्रासाद-युक्तं बहुजनसंकुलं च, स्तिमितं-स्वचक्रपरचक्रभयरहितं, समृद्धं-धनधान्यादि-महर्द्धिसम्पन्नम्, अत्र पदत्रयस्य कर्मधारयः। अर्थात् नगर में गगनचुम्बी अनेक बड़े-बड़े ऊंचे प्रासाद थे, और वह नगर अनेकानेक जनों से व्याप्त था। वहां पर प्रजा सदा स्वचक्र और परचक्र के भय से रहित थी और वह नगर धन-धान्यादि महा ऋद्धियों से सम्पन्न था। 2. "जाव यावत् " पद से "-अहीण-पडिपुण्ण-पंचिंदिय-सरीरा, लक्खण-वंजण-गुणो-ववेया, माणुम्माणप्पमाण-पडिपुण्णसुजाय-सव्वंगसुंदरंगी, ससिसोमाकारा, कंता, पियदंसणा, सुरूवा-" इन पदों का अर्थ निम्नोक्त है ... लक्षण की अपेक्षा अहीन (समस्त लक्षणों से युक्त), स्वरूप की अपेक्षा परिपूर्ण (न अधिक ह्रस्व और न अधिक दीर्घ, न अधिक पीन और न अधिक कृश) अर्थात् अपने अपने प्रमाण से विशिष्ट पाँचों इन्द्रियों से उस का शरीर सुशोभित था। हस्त की रेखा आदि चिन्ह रूप जो स्वस्तिक आदि होते हैं उन्हें लक्षण कहते हैं। मसा, तिल आदि जो शरीर में हुआ करते हैं, वे व्यञ्जन कहलाते हैं इन दोनों प्रकार के चिन्हों से यह गणिका सम्पन्न थी। जल से भरे कुण्ड में मनुष्य के प्रविष्ट होने पर जब उससे द्रोण (16 या 32 सेर) परिमित जल बाहर निकलता है प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [223