________________ (31) द्यूतकला-का शाब्दिक अर्थ है जूआ। जूआ भी प्राचीन काल में कलाओं में परिगणित होता था। इस का उद्देश्य केवल मनोविनोद रहता था। इस में होने वाली हार जीत शाब्दिक एवं मनोविनोद का एक प्रकार समझी जाती थी। मनोविनोद के साथ-साथ यह विजेता बनने के लिए बौद्धिक प्रगति का कारण भी बनता था। परन्तु ज्यों-ज्यों समय बीतता गया त्यों-त्यों इस कला का दुरुपयोग होने लगा। यह मात्र मनोविनोद की प्रक्रिया न रह कर जीवन के लिए अभिशाप का रूप धारण कर गई। उसी का यह दुःखान्त परिणाम हुआ कि धर्मराज युधिष्ठिर जैसे मेधावी व्यक्ति भी सती-शिरोमणी द्रौपदी जैसी आदर्श महिलाओं को दांव पर लगा बैठे और अन्त में उन्हें वनों में जीवन की घड़ियां व्यतीत करनी पड़ी। नल ने भी इसी कला के दुरुपयोग से अपने साम्राज्य से हाथ धोया था। ऐसे एक नहीं अनेकों उदाहरण हैं। सारांश यह है कि पहले समय में इस कला को मनोविनोद का एक साधन समझा जाता था। (32) व्यापार-कला-इस कला द्वारा, विशेषरूपेण लेन देन या खरीदने बेचने का काम करना सिखाया जाता है। व्यापार में सच्चाई और ईमानदारी की कितनी अधिक आवश्यकता है, सम्पत्ति के बढ़ाने के प्रधान साधन कौन-कौन से हैं, कल-कारखाने कहां डाले जाते हैं, कौन सा व्यापार कहां पर सुविधा-पूर्वक हो सकता है, इत्यादि बातों का भी इस कला द्वारा भान कराया जाता है। . (33) राजसेवा-कला-इस कला द्वारा लोगों को राजसेवा का बोध कराया जाता है। राजा को राज्य की रक्षा और हर प्रकार की उन्नति के लिए केवल बन्धे हुए टैक्स दे कर ही अलग हो जाना राजसेवा नहीं है, परन्तु राज्य पर या राजा पर कोई मामला आ पड़ने पर तन से, मन से और धन से सहायता पहुंचाना और उस की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व भी लगाने में संकुचित न होने का नाम राज-सेवा है। इत्यादि बातें भी इस कला के द्वारा सिखाई जाती हैं। . (34) शकुनविचार-कला-इस कला के द्वारा तरह-तरह के शकुन और अपशकुन को जानने की शक्ति मनुष्य में भली-भांति आ जाती है। प्रत्येक काम को आरम्भ करते समय लोग शकुन को सोचने लगते हैं। पशु-पक्षियों की बोली से उन के चलते समय दाहिने या बाएं आ पड़ने से, किसी सधवा या विधवा के सन्मुख आ जाने से, इत्यादि कई बातों से शुभ या अशुभ शकुन की जानकारी इस कला के द्वारा हो जाती है। (३५)वायुस्तम्भन कला-वायु को किस तरह रोका जा सकता है, उस का रुख मनचाही दिशा में किस प्रकार घुमाया जा सकता है, रुकी हुई वायु के बल और तोल का प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [231