________________ टीका-पुण्यहीन पापी जीव जहां कहीं भी जाते हैं वहां अनिष्ट के सिवा और कुछ नहीं होता। तदनुसार एकादि का जीव नरक से निकल कर जब मृगादेवी के उदर में आया तो उसके सुकोमल शरीर में तीव्र वेदना उत्पन्न हो गई। इसके अतिरिक्त उसके गर्भ में आते ही सर्वगुण-सम्पन्न, सर्वांग-सम्पूर्ण परमसुन्दरी [जो कि विजय नरेश की प्रियतमा थी] मृगादेवी विजय नरेश को सर्वथा अप्रिय और सौन्दर्य-रहित प्रतीत होने लगी। पुण्यशाली और पापिष्ट आत्माओं की पुण्य और पापमय विभूति का इन्हीं लक्षणों से अनुमान किया जाता है। "उज्जला जाव जलंता" इस वाक्य में दिए गए "जाव-यावत्" पद से "विउला कक्कसा, पगाढा, चंडा, दुहा, तिव्वा, दुरहियासा-" इन पदों का ग्रहण करना / अर्थदृष्ट्या इन पदों में कोई विशेष भिन्नता नहीं है। इस प्रकार "अणिट्ठा, अकंता, अप्पिया, अमणुण्णा अमणामा" ये पद समानार्थक ही समझने चाहिएं। तत्पश्चात् क्या हुआ, अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं मूल-तते णं तीसे मियाए देवीए अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुंबजागरियाए जागरमाणीए इमे एयारूवे अज्झत्थिते समुप्पन्ने-एवं खलु अहं विजयस्स खत्तियस्स पुट्विं इट्ठा 6 धेजा वेसासिया अणुमया आसि, जप्पभितिं च णं मम इमे गब्भे कुच्छिंसि गब्भत्ताए उववन्ने, तप्पभितिं च णं-विजयस्स खत्तियस्स अहं अणिट्ठा जाव अमणामा जाया यावि होत्था। नेच्छति णं विजए खत्तिए मम नामं वा गोत्तं वा गिण्हित्तते, किमंग पुण दंसणं वा परिभोगं वा। तं सेयं खलु सम एयं गब्भं बहूहिं गब्भसाडणाहि य पाडणाहि य गालणाहि य मारणांहि य साडेत्तए वा 4 एवं संपेहेति 2 बहूणि खाराणि य कडुयाणि य तूवराणि य गब्भसाडणाणि य खायमाणी य पीयमाणी य इच्छति तं गब्भं साडित्तए वा 4 नो चेवणं से गब्भे सडइ वा 4 / तते णं सा मियादेवी जाहे नो संचाएति तं गब्भं साडित्तए वा ताहे संता तंता परितंता अकामिया असयंवसा तं गब्भं दुहं-दुहेणं परिवहति। छाया-ततः तस्या मृगादेव्या अन्यदा कदाचित् पूर्वरात्रापररात्रकालसमये कुटुम्बजागर्यया जाग्रत्या अयमेतद्रूप आध्यात्मिक: 5 समुत्पन्न:- एवं खल्वहं 1. पूर्वरात्रापररात्रकालसमये, रात्रेः पूर्वभाग: पूर्वरात्रः, रात्रेरपरी भागः अपररात्रः, तावेव तदुभयमिलितो यः कालः समयः स मध्यरात्रः तस्मिन्नित्यर्थः। ___2. न मनसा अभ्यते गम्यते पुनः पुनः स्मरणतो या सा अमनोमा अर्थात् मन को अत्यन्त अनिष्ट। 188 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय ' [प्रथम श्रुतस्कंध