________________ चारित्र को प्राप्त करके उससे अलग न होता हुआ समाधि पूर्वक संयम-मार्ग में विचरता है। "-समाहिपत्ते-समाधिप्राप्त:-" पद का अर्थ है समाधि को प्राप्त हुआ। सूत्रकृतांग के टीकाकार श्री शीलांकाचार्य के मतानुसार समाधि दो प्रकार की होती है। (1) द्रव्यसमाधि और (2) भाव समाधि। मनोहर शब्द आदि पांच विषयों की प्राप्ति होने पर जो श्रोत्रादि इन्द्रियों की पुष्टि होती है, उसे द्रव्यसमाधि कहते हैं, अथवा परस्पर विरोध नहीं रखने वाले दो द्रव्य अथवा बहुत द्रव्यों के मिलाने से जो रस बिगड़ता नहीं किन्तु उसकी पुष्टि होती है उसे द्रव्यसमाधि कहते हैं जैसे दूध और शक्कर, तथा दही और गुड़ मिलाने से अथवा शाकादि में नमक मिर्च आदि मिलाने से रस की पुष्टि होती है। अतः इस मिश्रण को द्रव्यसमाधि कहते हैं। अथवा जिस द्रव्य के खाने और पीने से शान्ति प्राप्त होती रहे उसे द्रव्य समाधि कहते हैं / अथवा तराजू के ऊपर जिस वस्तु को चढ़ाने से दोनों बाजू समान हों उसे द्रव्यसमाधि कहते हैं। ___भाव समाधि, दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप भेद से चार प्रकार की है। जो पुरुष दर्शनसमाधि में स्थित है वह जिन भगवान के वचनों से रंगा हुआ अन्त:करण वाला होने के कारण वायु रहित स्थान में रखे हुए दीपक के समान कुबुद्धिरूपी वायु से विचलित नहीं किया जा सकता है। ज्ञान समाधि वाला पुरुष ज्यों-ज्यों शास्त्रों का अध्ययन करता है त्यों-त्यों वह भावसमाधि में प्रवृत्त हो जाता है। चारित्र समाधि में स्थित मुनि दरिद्र होने पर भी विषय-सुख से निस्पृह होने के कारण परमशान्ति का अनुभव करता है। कहा भी है कि-'जिस के राग, मद और मोह नष्ट हो गए हैं वह मुनि तृण की शय्या पर स्थित हो कर भी जो आनन्द अनुभव करता है, उसे चक्रवर्ती राजा भी कहां पा सकता है! तप समाधि वाला पुरुष भारी तप करने पर भी ग्लानि का अनुभव नहीं करता तथा क्षुधा और तृषा आदि से वह पीड़ित नहीं होता। अस्तु / प्रस्तुत प्रकरण में जो समाधि का वर्णन है वह भाव-समाधि का वर्णन ही समझना चाहिए। तदनन्तर मृगापुत्र का जीव प्रथम देवलोक से च्यवकर महाविदेह क्षेत्र में दृढ़प्रतिज्ञ की भांति धनी कुलों में उत्पन्न होगा, तथा मनुष्य की सम्पूर्ण कलाओं में निपुणता प्राप्त कर दृढ़प्रतिज्ञ की तरह ही प्रव्रज्या धारण कर अनगार वृत्ति के यथावत् पालन से अष्टविध कर्मों का विच्छेद करता हुआ सिद्धगति-मोक्ष को प्राप्त करेगा। इस कथन से संसार के आवागमन चक्र छाया-प्रतिक्रमणेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? प्रतिक्रमणेन व्रतछिद्राणि पिदधाति पिहितव्रतच्छिद्रः पुनर्जीवो निरुद्धास्रवोऽशबलचरित्रश्चाष्टसु प्रवचनमातृषूपयुक्तोऽपृथक्त्व: सुप्रणिहितो विहरति। 1. तृणसंस्तार-निविष्टोऽपि मुनिवरो भ्रष्टरागमदमोहः, यत् प्राप्नोति मुक्तिसुखं कुतस्तत् चक्रवर्त्यपि। 216 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध