________________ चुका है। "-तहारूवाणं थेराणं-" यहां पठित तथारूप और स्थविर शब्द के अर्थ निम्नोक्त हैं-तथोक्त शास्त्रानुमोदित गुणों को धारण करने वाले की तथारूप संज्ञा है, अर्थात् जिसके जीवन में आगम-विहित गुण पाए जाएं उसे तथारूप कहते हैं। स्थविर-वृद्ध को स्थविर कहते हैं। स्थविर तीन प्रकार के होते हैं (1) वय-स्थविर (2) प्रव्रज्या- स्थविर और (3) श्रुतस्थविर / साठ वर्ष की आयु वाले को वय-स्थविर कहते हैं। बीस वर्ष की दीक्षा-पर्याय वाला प्रव्रज्या-स्थविर है और स्थानांग, समवायांग, आदि आगमों के ज्ञाता की श्रुत-स्थविर संज्ञा है। इसी प्रकार मुंडित भी द्रव्यमुंडित और भावमुंडित, इन भेदों से दो प्रकार के होते हैं। (1) सिर का लोच कराने वाला या मुंडवाने वाला द्रव्यमुण्डित (2) परिग्रह आदि को त्याग कर दीक्षा ग्रहण करने वाला भाव-मुण्डित कहलाता है। तथा अगार का मतलब घर अथवा गृहस्थाश्रम से है। उस से निकल कर त्यागवृत्ति-साधुधर्म को अंगीकार करना अनगार धर्म है। जैसा कि ऊपर भी मूलार्थ में कहा गया है कि भगवान् ने फरमाया कि गौतम ! सुप्रतिष्ठपुर नगर के श्रेष्ठ कुल में पुत्ररूप से उत्पन्न होने वाला यह मृगापुत्र का जीव दीक्षित हो कर ईर्यासमिति का पालक तथा ब्रह्मचारी होगा, और वहां पर अनेक वर्षों तक संयम-व्रत को पाल कर आलोचना और प्रतिक्रमण द्वारा समाधिस्थ होता हुआ समय आने पर काल करके सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न होगा। इस कथन से विकासगामी-अर्थात् विकास मार्ग की ओर प्रस्थान करने वाला आत्मा एक न एक दिन अपने गन्तव्य स्थान को प्राप्त करने में सफल हो ही जाता है। यह भली-भांति सूचित हो जाता है। ___ "इरियासमिते जाव बंभयारी'' इस में उल्लिखित 'जाव-यावत्' पद से"इरियासमिया, भासासमिया, एसणासमिया, आयाणभंडमत्त- निक्खेवणासमिया, उच्चारपासवण-खेलसिंघाण-जल्लपारिट्ठावणियासमिया, मणसमिया, वयसमिया, कायसमिया, मणगुत्ता, वयगुत्ता, कायगुत्ता, गुत्ता, गुत्तिंदिया, गुत्तबंभयारी' [ईर्यासमिताः, भाषासमिताः, एषणासमिताः, आदानभाण्डमात्र- निक्षेपणासमिताः, उच्चार-प्रश्रवणखेलसिंघाणजल्ल-परिष्ठापनिकासमिताः, मनःसमिताः, वच:समिताः, कायसमिताः, मनोगुप्ताः, वचोगुप्ता, कायगुप्ताः, गुप्ताः, गुप्तेन्द्रियाः, गुप्तब्रह्मचारिणः] इस अवशिष्ट पाठ का ग्रहण करना। "आलोइयपडिक्कंते-आलोचितप्रतिक्रान्तः"-अर्थात् आत्मा में लगे हुए दोषों को गुरुजनों के समीप निष्कपट भाव से प्रकाशित करके उन की आज्ञानुसार दोषों से दूर हटने 214 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध