________________ कुलकोटियों की संख्या साढ़े बारह लाख है। जाति, कुलकोटि आदि शब्दों की अर्थ-विचारणा से पूर्वोक्त पद स्पष्टतया समझे जा सकेंगे अतः इन के अर्थों पर विचार किया जाता है जाति-शब्द के अनेकों अर्थ हैं, परन्तु प्रकृत में यह शब्द एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों का परिचायक है। जलचर पंचेन्द्रिय का प्रस्तुत प्रकरण में प्रसंग चल रहा है। अतः प्रकृत में जाति शब्द से जलचरपंचेन्द्रिय का ग्रहण करना है। कुलकोटि-जीवसमूह को कुल कहते हैं, और उन कुलों के विभिन्न भेदों-प्रकारों को कोटि कहते हैं। जिन जीवों का वर्ण, गन्ध आदि सम है, वे सब जीव एक कुल के माने जाते हैं और जिन का वर्ण गन्ध आदि विभिन्न है, वे जीवसमूह विभिन्न कुलों के रूप में माने गए हैं। उत्पत्तिस्थान एक होने पर भी अर्थात् एक योनि से उत्पन्न जीवसमूह भी विभिन्न वर्ण गन्धादि के होने से विभिन्न कुल के हो सकते हैं। इस को स्थूलरूप से समझने के लिए गोमयगोबर का उदाहरण उपयुक्त रहेगा ___ वर्षतु के समय गोबर में बिच्छू आदि नाना प्रकार के विभिन्न आकार रखने वाले जीव उत्पन्न होने के कारण वह गोबर उन जीवों की एक योनि है, उस में कृमि, वृश्चिक आदि नाना / जातीय जीवसमूह अनेक कुलों के रूप में उत्पन्न होते हैं। अस्तु। यहां "-क्या गोबर के समान मत्स्यादि की योनियों में भी विभिन्न जीव उत्पन्न हो सकते हैं ?-" यह प्रश्न उत्पन्न होता है। जिस का उत्तर यह है कि विकलत्रय (विकलेन्द्रियद्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव जैसी स्थिति जलचर और पञ्चेन्द्रिय प्राणियों में नहीं है। वहां के कुलों में विभिन्न वर्णादि तथा विभिन्न आकृतियों के जलचरत्व आदि रूप ही लिए जाएंगे, हां, उन कुलों में सम्मूर्छिम (स्त्री और पुरुष के समागम के बिना उत्पन्न होने वाले प्राणी) एवं गर्भज (गर्भाशय से उत्पन्न होने वाले प्राणी) की भेद विवक्षा नहीं है। समाचार पत्र हिन्दुस्तान दैनिक में एक समाचार छपा था कि एक गाय को सिंहाकार बछड़ा पैदा हुआ है। आकृति की दृष्टि से तो वह बाह्यतः सिंह जातीय है परन्तु शास्त्र की दृष्टि से वह गोजातीय ही है। यही एक योनि से उत्पन्न जीवसमूहों की कुलकोटि की विभिन्नता का रहस्य है। योनि-का अर्थ है-उत्पत्तिस्थान। तैजस कार्मण शरीर को तो आत्मा साथ लेकर जाता है, फलतः जिस स्थान पर औदारिक और वैक्रियशरीर के योग्य पुद्गलों को ग्रहण कर तत्तत् शरीर का निर्माण करता है, वह स्थान योनि कहलाता है। 212 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय . [ प्रथम श्रुतस्कंध