________________ तेंतीस सागरोपम की है। इन में रत्न प्रभा नाम की पहली नरक भूमि के तीन काण्ड-हिस्से हैं, और उसमें उत्पन्न होने वाले जीवों की उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम की बताई गई है और अन्त की सातवीं नरक की उत्कृष्ट स्थिति का प्रमाण तेंतीस सागरोपम है। सागरोपम-यह जैनसाहित्य का कालपरिमाण सूचक पारिभाषिक शब्द है। जैन तथा बौद्ध बाङ्मय के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं पल्योपम तथा सागरोपम आदि शब्दों का उल्लेख देखने में नहीं आता। सागरोपम यह पद एक संख्याविशेष का नाम है। अंकों द्वारा इसे प्रकट नहीं किया जा सकता, अतः उसे समझाने का उपाय उपमा है। उपमा द्वारा ही उस की कल्पना की जा सकती है, इसी कारण उसे उपमासंख्या कहते हैं और इसीलिए सागर शब्द के बदले सागरोपम शब्द का व्यवहार किया जाता है। सागरोपम का स्वरूप इस प्रकार है चार कोस लम्बा और चार कोस चौड़ा तथा चार कोस गहरा एक कूआं हो, कुरुक्षेत्र के युगलिया के 7 दिन के जन्मे बालक के बाल लिए जाएं। युगलिया के बाल अपने बालों से 4096 गुना सूक्ष्म होते हैं, उन बालों के बारीक से बारीक टुकड़े काजल की तरह किए जायें, चर्मचक्षु से दिखाई देने वाले टुकड़ों से असंख्य गुने छोटे टुकड़े हों अथवा सूर्य की किरणों में जो रज दिखाई देती है उस से असंख्य गुने छोटे हों, ऐसे टुकड़े करके उस कुएं में ठसाठस भर दिए जाएं। सौ-सौ वर्ष व्यतीत होने पर एक-एक टुकड़ा निकाला जाए, इस प्रकार निकालते हुए जब वह कूप खाली हो जाए तब एक पल्योपम होता है। ऐसे दस कोटाकोटि कूप जब खाली हो जाएं तब एक सागरोपम होता है। एक करोड़ को एक करोड़ की संख्या से गुना करने पर जो गुनन फल आता है वह कोटाकोटि कहलाता है। उत्कृष्ट सागरोपम-स्थिति वाले का अर्थ है-अधिक से अधिक एक सागरोपम काल तक नरक में रहने वाला। इसका यह अर्थ नहीं कि प्रथम नरक भूमि के प्रत्येक नारकी की सागरोपम की ही स्थिति होती है, क्योंकि यहां पर जो नरक भूमियों की एक से क्रमश३३ सागरोपम तक की स्थिति बताई है, वह उत्कृष्ट-अधिक से अधिक बताई है, जघन्य तो इससे बहुत कम होती है। जैसे पहले नरक की उत्कृष्टस्थिति एक सागरोपम की और जघन्य अर्थात् रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुका प्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तम:प्रभा, और महातम:प्रभा ये सात भूमियां हैं, जो घनाम्बु, वात और आकाश पर स्थित हैं, एक-दूसरी के नीचे हैं और नीचे की ओर अधिक-अधिक विस्तीर्ण हैं। इन सातों नरकों की स्थिति का वर्णन निम्नोक्त है "तेष्वेकत्रिसप्तदशद्वाविंशति-त्रयोविंशत्-सागरोपमाः सत्त्वानां परा स्थितिः" अर्थात् उन नरकों में रहने वाले प्राणियों की उत्कृष्ट स्थिति क्रम से एक, तीन, सात, दश, सत्रह, बाईस और तेंतीस सागरोपॅम है। 210] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय .[प्रथम श्रुतस्कंध