________________ सहस्रकृत्व: / स ततोऽनन्तरमुवृत्य, सुप्रतिष्ठपुरे नगरे गोतया प्रत्यायास्यति, स तत्रोन्मुक्त-बालभावोऽन्यदा कदाचित् प्रथमप्रावृषि गंगाया महानद्याः खलीन-मृत्तिकां खनन् तट्यां (पतितायाम्) पीड़ितः सन् कालगतः, तत्रैव सुप्रतिष्ठपुरे नगरे श्रेष्ठिकुले पुत्रतया प्रत्यायास्यति / स तत्र उन्मुक्त यावयौवनमनुप्राप्तः, तथारूपाणां स्थविराणामंतिके धर्मं श्रुत्वा निशम्य मुण्डो भूत्वा अगारादनगारतां प्रव्रजिष्यति / स तत्र अनगारो भविष्यति, ईर्यासमितो यावद् ब्रह्मचारी।स तत्र बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं पालयित्वा आलोचितप्रतिक्रान्तः समाधिप्राप्तः कालमासे कालं कृत्वा सौधर्मे कल्पे देवतयोपपत्स्यते। स ततोऽनन्तरं शरीरं त्यक्त्वा महाविदेहे वर्षे यानि कुलानि भवन्ति आढ्यानि यथा दृढ़प्रतिज्ञः, सैव वक्तव्यता, कला यावत् सेत्स्यति / एवं खलु जम्बू ! श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत् सम्प्राप्तेन दुःख-विपाकानां प्रथमस्याध्ययनस्यायमर्थः प्रज्ञप्तः। इति ब्रवीमि। प्रथमाध्ययनं समाप्तम्॥ पदार्थ-गोतमा !-हे गौतम ! मियापुत्ते-मृगापुत्र / दारए-बालक। छव्वीसं-२६ / वासातिंवर्ष की। परमाउयं-उत्कृष्ट आयु। पालइत्ता-पाल कर-भोग कर। कालमासे-मृत्यु का समय आने पर। कालं किच्चा-काल करके। इहेव-इसी। जंबुद्दीवे-दीवे-जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत। भारहे वासे-भारत वर्ष में। वेयड्ढगिरि-पायमूले-वैताढ्य पर्वत की तलहटी में। सीहकुलंसि-सिंह कुल में। सीहत्ताए-सिंह रूप से। पच्चायाहिति-उत्पन्न होगा। तत्थ-वहां पर।सेणं-वह / सीहे-सिंह / अहम्मिएअधर्मी / जाव-यावत्। साहसिते-साहसी। भविस्सति-होगा। सुबहु-अनेकविध। पावं-पापरूप। कम्मकर्म / समज्जिणति 2 त्ता -एकत्रित करेगा, करके। से-वह सिंह / कालमासे-मृत्यु-समय आ जाने पर। कालं किच्चा-काल कर के। इमीसे-इस। रयणप्पभाए-रत्न-प्रभा नामक। पुढवीए-पृथिवी में -नरक में। उक्कोससागरोवमट्ठिइएसु-उत्कृष्ट सागरोपम स्थिति वाले नारकों में अर्थात् जिन की उत्कृष्ट स्थिति सागरोपमं की है, उन नारकियों में। उववजिहिति-उत्पन्न होगा। ततो णं-तदनन्तर। से-वह सिंह का जीव। अणंतरं-अन्तर रहित, बिना व्यवधान के। उव्वट्टित्ता-निकल कर अर्थात् पहली नरक से निकल कर सीधा ही। 'सरीसवेसु-भुजाओं अथवा छाती के बल से चलने वाले तिर्यञ्च प्राणियों की योनियों में। उववज्जिहिति-उत्पन्न होगा। तत्थ णं-वहां पर। कालं किच्चा-काल करके। दोच्चाए पुढवीएदूसरी नरक में। उववजिहिति-उत्पन्न होगा, वहां उसकी। उक्कोसियाए-उत्कृष्ट / तिन्निसागरोवमट्टिई 1. प्रज्ञापनासूत्र के प्रथम पद में लिखा है-स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च जीवों के दो भेद हैं, जैसे किचतुष्पद और परिसर्प / परिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च जीवों के-भुजपरिसर्प और उर:परिसर्प ऐसे दो भेद होते हैं। भुजपरिसर्प शब्द से भुजाओं से चलने वाले नकुल, मूषकादि जीवों का ग्रहण होता है। और उर:परिसर्प शब्द छाती से चलने वाले सांप, अजगर आदि जन्तुओं का परिचायक है। परिसर्प का ही पर्यायवाची सरीसृप शब्द है प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [205