________________ की ओर पूय तथा रक्त का स्राव करने वाली आभ्यन्तर और बाहर की शिराओं-नाड़ियों से , पूय और रुधिर का बहना, शरीर में भयंकर अग्निक-१भस्मक रोग का उत्पन्न होना, खाए हुए अन्नादि का उसके द्वारा शीघ्रातिशीघ्र नष्ट हो जाना अर्थात् उस का पच जाना एवं उस का पूय और रुधिर के रूप में परिणमन हो जाना और उस का भी भक्षण कर लेना ये सब इतना वीभत्स और भयावना दृश्य है कि उस का उल्लेख करते हुए लेखनी भी संकोच करती है। तब गर्भस्थ मृगापुत्र की अथवा नरक से निकल कर मृगादेवी के गर्भ में आए हुए एकादि के जीव की उपर्युक्त दशा की ओर ध्यान देते हुए भर्तृहरि के स्वर में स्वर मिलाकर "तस्मै नमः कर्मणे" . [अर्थात् कर्मदेव को नमस्कार हो] कहना नितरां उपयुक्त प्रतीत होता है। ____गर्भस्थ मृगापुत्र के शरीर में भीतर और बाहर की ओर प्रवाहित होने वाली नाड़ियों में से आठ पूय को प्रवाहित करती थीं और आठ से रक्त प्रवाहित होता था। इस प्रकार पूय और रक्त को प्रवाहित करने वाली 16 नाड़ियां थीं। इनका अवान्तर विभाग इस प्रकार है दो-दो कानों के छिद्रो में, दो-दो नेत्रों के विवरों में, दो-दो नासिका के रंधों में और दो-दो दोनों धमनियों में, अन्दर और बाहर से पूय तथा रक्त को प्रवाहित कर रही थीं। यह"अट्ठ णालीओ" से लेकर "परिस्सवमाणीओ 2 चेव चिटुंति" तक के मूल पाठ का इसी प्रश्न का समाधान सूत्रकार ने-तं पि य से पूयं च सोणियं च आहारेति-इन शब्दों द्वारा किया है। अर्थात् वह मृगापुत्र का जीव उस पूय और रुधिर को आहार के रूप में ग्रहण कर लेता था। सूत्रकार का यह पूर्वोक्त कथन बड़ा गंभीर एवं युक्ति-पूर्ण है। क्योंकि-मृगापुत्र जो आहार ग्रहण करता है; वह तो पूय और रुधिर के रूप में परिणत हो जाता है, और उसके शरीर की आठ अन्दर की और आठ बाहर की नाड़ियां उस पूय और रुधिर का स्रवण कर रहीं हैं। ऐसी स्थिति में उस के शरीर का निर्माण किस तत्त्व से हो सकेगा? यह प्रश्न उपस्थित होता है, जिस का उत्तर सूत्रकार ने यह दिया है कि नाड़ियों से परिस्रवित पूय और रुधिर को वह (मृगापुत्र का जीव) ग्रहण कर लेता था, जो उस के शरीर-निर्माण का कारण बनता था। रहस्यं तु केवलि-गम्यम्। मृगापुत्र के जीव का यह कितना निकृष्ट एवं घृणास्पद वृत्तान्त है, यह कहते नहीं बनता। कर्मों का प्रकोप ऐसा ही भीषण एवं हृदय कम्पा देने वाला होता है। अतः सुखाभिलाषी पाठकों को पाप कर्मों से सदा दूर ही रहना चाहिए। 1. भस्मक रोग वात, पित्त के प्रकोप से उत्पन्न होने वाली एक भयंकर व्याधि है। इस में खाया हुआ अन्नादि पदार्थ शीघ्रातिशीघ्र भस्म हो जाता है-नष्ट हो जाता है। शार्ङ्गधर संहिता [अध्याय 7] में इस का लक्षण इस प्रकार दिया गया है: ___ अतिप्रवृद्धः पवनान्वितोऽग्नि :, क्षणाद्रसं शोषयति प्रसह्य। युक्तं क्षणाद् भस्म करोति यस्मात्तस्मादयं भस्मक-संज्ञकस्तु॥ अर्थात्- जिस रोग में बढ़ी हुई वायु युक्त अग्नि रसों को क्षणभर में सुखा देती है, तथा खाए हुए भोजन को शीघ्रातिशीघ्र भस्म कर देती है उसे भस्मक कहते हैं। 194 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध