________________ चिकित्सक भी असफल हुए, अन्त में उन्होंने उसे जवाब दे दिया। इसी प्रकार उसके परिचारकों ने भी उसे छोड़ दिया। और उस ने भी औषधोपचार से तंग आकर अर्थात् उससे कुछ लाभ होते न देखकर औषधि-सेवन को त्याग दिया। ये सब कुछ स्वोपार्जित अशुभ कर्मों की विचित्र लीला का ही सजीव चित्र है। अष्टांग हृदय नामक वैद्यक ग्रन्थ में लिखा है कि "-यथाशास्त्रं तु निर्णीता, यथाव्याधि-चिकित्सिताः।रोगा ये नशाम्यन्ति, ते ज्ञेयाः कर्मजा बुधैः॥१॥" अर्थात् जो रोग शास्त्रानुसार सुनिश्चित और चिकित्सित होने पर भी उपशान्त नहीं होते उन्हें कर्मज रोग समझना चाहिए। इसके अतिरिक्त यह भी विचारणीय है कि 16 प्रकार के भयंकर रोगों से अभिभूत अथच तिरस्कृत होने पर तथा अनेकविध शारीरिक और मानसिक वेदनाओं का प्रत्यक्ष अनुभव करने पर भी एकादि राष्ट्रकूट के प्रलोभन में कोई अन्तर नहीं पड़ा। वह निरन्तर राज्य के उपभोग और राष्ट्र के शासन का इच्छुक बना रहता है। अभी तक भी उसकी काम-वासनाओं अर्थात् विषय-वासनाओं में कमी नहीं आई। इससे अधिक पामरता और क्या हो सकती है। तब इस प्रकार के पामर जीवों का मृत्यु के बाद नरक-गति में जाना अवश्यंभावी होने से एकादि राष्ट्रकूट भी मर कर रत्नप्रभा नाम के प्रथम नरक में गया। उसने एकादि के भव में 250 वर्ष की आयु तो भोगी मगर उस का बहुत सा भाग उसे आर्त, दुःखार्त और वशार्त दशा में ही व्यतीत करना पड़ा। तात्पर्य यह है कि उसकी आयु का बहुत सा शेष भाग शारीरिक तथा मानसिक दुःखानुभूति में ही समाप्त हुआ। "रजे य रटे य जाव अंतेउरे" यहां पर उल्लेख किए गए "जाव-यावत्" पद से "कोसे य कोट्ठागारे य बले य वाहणे य पुरे य" इन पदों का ग्रहण समझना। तथा "मुच्छिए गढिए, गिद्धे, अज्झोववन्ने" (मूर्छितः, ग्रथितः, गृद्धः, अध्युपपन्नः) इन चारों पदों का अर्थ समान हैं। इसी प्रकार "आसाएमाणे, पत्थेमाणे, पीहेमाणे, अहिलसमाणे" ये पद भी समानार्थक हैं। "अट्ट-दहट्ट-वसट्टे-आतंदुःखार्तवशात:" की व्याख्या में आचार्य अभयदेव सूरि लिखते हैं कि-"आर्तो मनसा दुखितः, दुखार्तो देहेन, वशार्तस्तु इन्द्रियवशेन पीड़ितः, अर्थात् आर्त शब्द मनोजन्य दुःख, दुखार्त शब्द देहजन्य दुःख और वशात शब्द इन्द्रियजन्य दुख का सूचक है। इन तीनों शब्दों में कर्मधारय समास है। तात्पर्य यह है कि ये तीनों विभिन्नार्थक होने से यहां प्रयुक्त किए गए हैं।" रत्नप्रभा नाम के प्रथम नरकस्थान में उत्पन्न होने वाले जीवों की उत्कृष्ट स्थित एक सागरोपम की मानी गई है और जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है। दशकोटा-कोटि पल्योपम 186 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध