________________ है कि हे 'देवानुप्रियो ! तुम जाओ और विजयवर्द्धमान खेट के शृंगाटक [ त्रिकोणमार्ग ] त्रिक त्रिपथ [ जहां तीन रास्ते मिलते हों] चतुष्क-चतुष्पथ [ जहां पर चार मार्ग एकत्रित होते हों] चत्वर [ जहां पर चार से अधिक मार्गों का संगम हो ] महापथ-राज मार्ग और अन्य साधारण मार्गों पर जा कर बड़े ऊंचे स्वर से इस तरह घोषणा करो कि-हे महानुभावो ! एकादि राष्ट्रकूट के शरीर में श्वास, कास, ज्वर यावत् कुष्ठ ये 16 भयंकर रोग उत्पन्न हो गए हैं। यदि कोई वैद्य या वैद्यपुत्र, ज्ञायक या ज्ञायक-पुत्र एवं चिकित्सक या चिकित्सकपुत्र उन सोलह रोगातंकों में से किसी एक रोगातंक को भी उपशान्त करे तो एकादि राष्ट्रकूट उस को बहुत सा धन देगा। इस प्रकार दो बार, तीन बार उद्घोषणा करके मेरी इस आज्ञा के यथावत् पालन की मुझे सूचना दो। तदनन्तर वे कौटुम्बिक पुरुष एकादिराष्ट्रकूट की आज्ञानुसार विजयवर्द्धमान खेट में जाकर उद्घोषणा करते हैं और वापिस आकर उस की एकादि राष्ट्रकूट को सूचना दे देते हैं। तत्पश्चात् विजयवर्द्धमान खेट में इस प्रकार की उद्घोषणा का श्रवण कर अनेक वैद्य, वैद्यपुत्र, ज्ञायक, ज्ञायकपुत्र, चिकित्सक और चिकित्सकपुत्र हाथ में शास्त्रपेटिका [शस्त्रादि रखने का बक्स या थैला ] लेकर अपने-अपने घरों से निकल पड़ते हैं, निकल कर विजयवर्द्धमान खेट के मध्य में से होते हुए जहां एकादि राष्ट्रकूट का घर था वहां पर आ. जाते हैं, आकर एकादि राष्ट्रकूट के शरीर का स्पर्श करते हैं, शरीर-सम्बन्धी परामर्श करने के बाद रोगों का निदान पूछते हैं अर्थात् रोगविनिश्चयार्थ विविध प्रकार के प्रश्न पूछते हैं, प्रश्न पूछने के अनन्तर उन 16 रोगातंकों में से अन्यतम-किसी एक ही रोगातंक को उपशान्त करने के लिए अनेक अभ्यंग, उद्वर्तन, स्नेहपान, वमन, विरेचन, सेचन, 1. जैनागमों में किसी को सम्बोधित करने के लिए प्रायः देवानुप्रिय शब्द का प्रयोग अधिक उपलब्ध होता है। इस का क्या कारण है ? इस प्रश्न के समाधान के लिए देवानुप्रिय शब्द के अर्थ पर विचार कर लेना आवश्यक रहाणव नाम के कोष में देवानुप्रिय शब्द के भद्र, महाशय, महानुभाव, सरलप्रकृति-इतने अर्थ लिखें हैं। अर्धमागधी कोषकार देव के समान प्रिय, देववत् प्यारे ऐसा अर्थ करते हैं। अभिधानराजेन्द्र कोष में सरल स्वभावी यह अर्थ लिखा है। यही अर्थ टीकाकार आचार्य अभयदेव सूरि ने भी अपनी टीकाओं में अपनाया है। कल्पसूत्र के व्याख्याकार समयसुदर जी गणी अपनी व्याख्या में लिखते हैं-"-हे देवानुप्रिय ! सुभग! अथवा देवानपि अनुरूपं प्रीणातीति देवानुप्रियः, तस्य सम्बोधनं हे देवानुप्रिय !-" गणी श्री जी के कहने का अभिप्राय यह है कि-देवानुप्रिय शब्द के दो अर्थ होते हैं-प्रथम सुभग। सुभग शब्द के अर्थ हैं-यशस्वी, तेजस्वी इत्यादि। दूसरा अर्थ है-जो देवताओं को भी अनुरूप-यथेच्छ प्रसन्न करने वाला हो उसे देवानुप्रिय कहते हैं। अर्थात्-वक्ता देवानुप्रिय शब्द के सम्बोधन से सम्बोधित व्यक्ति का उस में देवों को प्रसन्न करने की विशिष्ट योग्यता बता कर सम्मान प्रकट करता है। सारांश यह है कि देवानुप्रिय एक सम्मान सूचक सम्बोधन है, इसी लिए ही सूत्रकार ने यत्र तत्र इसका प्रयोग किया है। 176 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय . [प्रथम श्रुतस्कंध