________________ है "भगंदारयतीति भगन्दरः" भग अर्थात् गुह्य और मुष्क-गुदा तथा अण्डकोष के मध्यवर्ती स्थान को जो विदीर्ण करे उस का नाम भगन्दर है। किसी-किसी आचार्य का यह मत है कि भगाकार विदीर्ण होने से इस का नाम भगन्दर है, अर्थात् भगाकार विदीर्ण होता है इस कारण इस को भगन्दर कहते हैं। वास्तव में ऊपर उल्लेख किए गए भगन्दर के लक्षण के साथ भगन्दर शब्द की निरुक्ति कुछ अधिक मेल खाती है। (7) अर्श-इसका आम प्रचलित नाम बवासीर है। यह 6 प्रकार की होती है-(१) वातज (2) पित्तज (3) कफज (4) त्रिदोषज (5) रक्तज (6) सहज। इस का निदान और लक्षण इस प्रकार कहा है दोषास्त्वङ्मांसमेदांसि, सन्दूष्य विविधाकृतीन्। मांसांकुरानपानादौ, कुर्वन्त्यांसि ताजगुः॥२॥ __(माधवनिदाने अर्शाधिकारः) अर्थात्-दुष्ट हुए वातादि दोष, त्वचा, मांस और मेद को दूषित करके गुदा में अनेक प्रकार के आकार वाले मांस के अंकुरों (मस्सों) को उत्पन्न करते हैं उन को अर्श-अर्थात् बवासीर कहते हैं। उक्त षड्विध अर्श रोग में त्रिदोषज कष्टसाध्य और सहज असाध्य है। (8) अजीर्ण-जीर्ण अर्थात् किए हुए भोजनादि पदार्थ का सम्यक् पाक न होना अजीर्ण है। यह रोग जठराग्नि की मन्दता के कारण होता है। वैद्यकग्रन्थों में-मन्द-तीक्ष्ण, विषम और सम इन भेदों से जठराग्नि चार प्रकार की बताई है। इन में कफ की अधिकता से मन्द, पित्त के आधिक्य से तीक्ष्ण, वायु की विशेषता से विषम और तीनों की समानता से सम अग्नि होती है। इन में सम अग्नि वाले मनुष्य को तो किया हुआ यथेष्ट भोजन समय पर अच्छे प्रकार से पच जाता है। और मन्दाग्नि वाले पुरुष को स्वल्प मात्रा में किया हुआ भोजन भी नहीं पचता तथा जो विषमाग्नि वाला होता है उसको कभी पच भी जाता है और कभी नहीं भी पचता। तथा जो तीक्ष्ण अग्नि वाला होता है उसको तो भोजन पर भोजन, अथवा अत्यन्त भोजन भी किया हुआ पच जाता है। इन में जो मन्दाग्नि या विषम अग्नि वाला पुरुष होता है उसी पर अजीर्ण रोग का आक्रमण होता है। अजीर्ण रोग के प्रधानतया चार भेद बताए हैं जैसे कि-(१) आम अजीर्ण (2) विदग्ध अजीर्ण (3) विष्टब्ध अजीर्ण और (4) रसशेष 1. शब्दस्तोम महानिधि कोष में भग शब्द से गुह्य और मुष्क के मध्यवर्ती स्थान का ग्रहण किया हैभगन्दरम्-भगं गुह्यमुष्कमध्यस्थानं दारयतीति.... स्वनामाख्याते रोगभेद-तब भग शब्द से आचार्य हेमचन्द्र जी को भी सम्भवतः यही अभिमत होगा ऐसा हमारा विचार है। 2. मन्दस्तीक्ष्णोऽथ विषमः, समश्चेति चतुर्विधः। कफपित्तानिलाधिक्यात्तत्साम्याज्जाठरोऽनलः॥१॥ [बंगसेने अजीर्णाधिकारः] 168) श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध