________________ किया जा चुका है। तब एवंविध कर्मों में समुद्यत, एवं पातकमय कर्मों के आचरण में निपुण वह एकादि दुःखों के उत्पादक अत्यन्त नीच और भयानक पपाकर्मों का संचय करता हुआ जीवन बिता रहा था। परन्तु स्मरण रहे कि शास्त्रीय कथन के अनुसार किए हुए पाप कर्मों का फल भोगना अवश्य पड़ता है। कर्मों के बिना भोगे उन से छुटकारा कभी नहीं हो सकता। उत्तराध्ययन सूत्र में भगवान महावीर स्वामी इस बात का निनोक्त शब्दों द्वारा समर्थन करते हैं, जैसे कि तेणे जहा सन्धिमुहे गहीए, सकम्मणा किच्चइ पावकारी। एवं पया पेच्च इहं च लोए, कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि॥ . [उत्तराध्ययन सूत्र अ० 4-3] अर्थात् -सेंध लगाता हुआ पकड़ा जाने वाला चोर जिस प्रकार अपने किए हुए पापकर्मों से मारा जाता है, उसी प्रकार शेष जीव भी इस लोक तथा परलोक में अपने किए हुए कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं पा सकते। तात्पर्य यह है कि कर्मों का फल भोगना अवश्यंभावी है, बिना भोगे कर्मों से छुटकारा नहीं हो पाता। तथा "अत्युग्रपुण्यपापानामिहैव फलमश्नुते" अर्थात् यह जीव अत्यन्त उग्र पुण्य और पाप का फल यहीं पर भोग लेता हैइस अभियुक्तोक्ति के अनुसार एकादि राष्ट्रकूट के शरीर में एक साथ ही सोलह रोगातंक उत्पन्न हुए। जो रोग अत्यन्त कष्टजमक हों तथा जिन का प्रतिकार कष्टसाध्य अथवा असाध्य हो उन्हें रोगातंक कहते हैं वे निम्नलिखित हैं - (1) श्वास (2) कास (3) ज्वर (4) दाह (5) कुक्षिशूल (6) भगन्दर (7) अर्शबवासीर (8) अजीर्ण (9) दृष्टि-शूल (10) मस्तकशूल (11) अरोचक (12) अक्षिवेदना (13) कर्णवेदना (14) कण्डू-खुजली (15) दकोदर-जलोदर (16) कुष्ठ-कोढ़। ये 16 रोग एकादि के शरीर में एकदम उत्पन्न हो गए। श्वास, कास आदि रोगों का सांगोपांग व्याख्यान तो वैद्यक ग्रन्थों में से जाना जा सकेगा। परन्तु संक्षेप में यहां इन का मात्र परिचय करा देना आवश्यक प्रतीत होता है (1) श्वास-अभिधान राजेन्द्र कोश में श्वास शब्द का "अतिशयत ऊर्ध्वश्वासरूपरोग-भेदः-" यह अर्थ लिखा है, इसका भाव है-तेजी से सांस का ऊपर उठना अर्थात्दम का फूलना, दमे की बीमारी। श्वास एक प्रसिद्ध रोग है, इसके-२महाश्वास, ऊर्ध्वश्वास, 1. छाया- स्तेनो यथा सन्धि-मुखे गृहीतः, स्वकर्मणा कृत्यते पापकारी। ___ एवं प्रजा प्रेत्येह च लोके, कृतानां कर्मणां न मोक्षोऽस्ति // . 2. महोर्ध्वच्छिन्नतमकक्षुद्रभेदैस्तुः पंचधा। भिद्यते स महाव्याधिः श्वास एको विशेषत // 15 // प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [165