________________ एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे शतद्वारं नाम नगरमभवत्, ऋद्धिस्तिमित वर्णकः / तत्र शतद्वारे नगरे धनपति म राजाऽभवत् / तस्य शतद्वारस्य नगरस्यादूरसामन्ते दक्षिणपौरस्त्ये दिग्भागे विजयवर्द्धमानो नाम खेटोऽभवत्, ऋद्ध / तस्य विजयवर्द्धमानस्य खेटस्य पञ्च ग्रामशतान्याभोगश्चाप्यभवत्। तत्र विजयवर्द्धमाने खेटे एकादिर्नाम राष्ट्रकूटोऽभवद्, अधार्मिक यावत् दुष्प्रत्यानन्दः। सः एकादी राष्ट्रकूटो विजयवर्द्धमानस्य खेटस्य पञ्चानां ग्रामशतानामाधिपत्यं यावत् पालयमानो विहरति / ततः स एकादिः विजयवर्द्धमानस्य खेटस्य पञ्च ग्रामशतानि बहुभिः करैश्च भरैश्च वृद्धिभिश्च लञ्चाभिश्च पराभवैश्च देयैश्च भेद्यैश्च कुन्तकैश्च लंछपोषैश्चादीपनैश्च पान्थकुट्टैश्चावपीलयन् 2 विधर्मयन् 2 तर्जयन् 2 ताड़यन् निर्धनान् कुर्वन् 2 विहरति। पदार्थ-गोयमा ! इ-हे गौतम ! इस प्रकार आमंत्रण कर। समणे-श्रमण। भगवं-भगवान्। महावीरे-महावीर। भगवं-भगवान्। गोतमं-गौतम के प्रति। एवं वयासी-इस प्रकार बोले। एवं खलुइस प्रकार निश्चय ही। गोतमा !-हे गौतम ! तेणं कालेणं-उस काल में। तेणं समएणं-उस समय में। इहेव-इसी। जंबुद्दीवे दीवे- जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत। भारहे वासे-भारतवर्ष में। सयदुवारेशतद्वार ।णाम-नामक / नगरे-नगर / होत्था-था। रिद्धस्थिमिते-जोकि गगनचुम्बी उन्नत भवनों से विभूषित, धनधान्यादि से पूर्ण तथा समृद्धिशाली और भय से रहित था। वण्णओ-वर्णनग्रन्थ पूर्ववत् / तत्थ णं-उस। सयदुवारे-शतद्वार नामक। णगरे-नगर में। धणवती-धनपति नाम का। राया-राजा। होत्था-था। तस्स णं-उस। सयदुवारस्स-शतद्वार। णगरस्स-नगर के। अदूरसामंते-थोड़ी दूर। दाहिणपुरथिमे-दक्षिण पूर्व। दिसीभाए-दिग्विभाग-अग्नि कोण में। विजयवद्धमाणे-विजयवर्द्धमान / णाम-नामक खेडे-खेटनदी और पर्वतों से वेष्टित नगर। होत्था-था, जो कि। रिद्ध-समृद्धशाली था। तस्स णं-उस। विजयवद्धमाणस्स खेडस्स-विजय वर्द्धमान खेट का। घंच गामसयाई-पांच सौ ग्रामों का। आभोएआभोग-विस्तार। यावि होत्था-था। तत्थ-उस। विजयवद्धमाणे खेडे-विजयवर्द्धमान खेट में। एक्काई नाम-एकादि नाम का। रट्ठकूडे-राष्ट्रकूट-राजा की ओर से नियुक्त प्रतिनिधि। होत्था-था जो, कि। अहम्मिए-अधार्मिक-धर्म रहित, अथवा धर्म-विरोधी। जाव-यावत् / दुप्पडियाणंदे-दुष्प्रत्यानन्द-असंतोषी जो कि किसी तरह से प्रसन्न न किया जा सके। होत्था-था। से णं एक्काई रट्ठकूडे-वह एकादि नामक राजप्रतिनिधि। विजयवद्धमाणस्स खेडस्स-विजयवर्द्धमान खेट के। पंचण्हं गामसयाणं-पांच सौ ग्रामों शब्दों में की है। अर्थात् हे गौतम ! इस प्रकार सम्बोधन करके, यह अर्थ वृत्तिकार को इष्ट है। परन्तु जब आगे "गोतमा!" ऐसा सम्बोधन पड़ा ही है फिर पहले सम्बोधन की क्या अवश्यकता थी ? इस सम्बन्ध में वृत्तिकार ने कुछ नहीं लिखा। मेरे विचार में तो मात्र सूत्रों की प्राचीन शैली ही इस में कारण प्रतीत होती है। अन्यथा "गोयमा! इ" इस पाठांश का अभाव प्रस्तुत प्रकरण में कोई बाधक नहीं था। 158 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध