________________ टीका-आगमों के संख्या-बद्ध क्रम में प्रश्न व्याकरण दशवां और विपाक श्रुत ग्यारहवां अंग है, अतः प्रश्रव्याकरण के अनन्तर विपाकश्रुत का स्थान स्वाभाविक ही है। वर्तमान काल में उपलब्ध प्रश्रव्याकरण नाम का दशवां अंग दश अध्ययनों में विभक्त है, जिनमे प्रथम के पांच अध्ययनों में पांच आश्रवों का वर्णन है और अन्त के पांच अध्ययनों में पांच संवरों का निरूपण किया गया है, तथा एकादशवें अंग-विपाक श्रुत में संवर-जन्य शुभ तथा आश्रव-जन्य अशुभ कर्मों के विपाक-फल का वर्णन मिलता है। इस प्रकार इन दोनों में पारस्परिक सम्बंध रहा हुआ है। प्रस्तुत सूत्र-"विपाक श्रुत" में आचार्य अभयदेव सूरि ने "तेणं कालेणं तेणं समएणं" का "तस्मिन् काले तस्मिन् समये" जो सप्तम्यन्त अनुवाद किया है वह दोषाधायक नहीं है। कारण कि अर्द्धमागधी भाषा में सप्तमी के स्थान पर तृतीया का प्रयोग भी देखा जाता है। किसी-किसी आचार्य का मत है कि यहां 'णं' वाक्यालंकारार्थक है और "ते" प्रथमा का बहुवचन है जो कि यहां पर अधिकरण अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, परन्तु दोनों विचारों में से आद्य विचार का ही बहुत से आचार्य समर्थन करते हैं / आचार्य प्रवर श्री हेमचन्द्र जी के शब्दानुशासन में भी सप्तमी के स्थान पर तृतीया का प्रयोग पाया जाता है, यथा-सप्तम्यां द्वितीया [8 / 3 / 137] सप्तम्याः स्थाने द्वितीया भवति। विजुज्जोयं भरइ रत्तिं / आर्षे तृतीयापि दृश्यते। तेणं कालेणं तेणं समएणं-तस्मिन् काले तस्मिन् समये इत्यर्थः। जैन सिद्धान्त कौमुदी (अर्द्धमागधि व्याकरण) में शतावधानी पंडित रत्नचन्द्र जी म० ने सप्तमी के स्थान पर तृतीया का विधान किया है, वे लिखते हैं आधारेऽपि।२।२।१९। क्वचिदधिकरणेऽपि वाच्ये तृतीया स्यात्। "तेणं कालेणं चोर जैसे अधम प्राणी भी जिस संसर्ग से सुधर गये, तो भला कुमार की उन आठों अर्धाङ्गिनियों में परिवर्तनं क्यों न होता? वे भी बदली, काफी वाद-विवाद के अनन्तर उन्होंने भी पति के निश्चित और स्वीकृत पथ पर चलने की स्वकृति दे दी और वे दीक्षित होने के लिये तैयार हो गईं। - आठों सुकुमारियां, प्रभव चोर और उसके पांच सौ साथी एवं अन्य अनेकों धर्म-प्रिय नर-नारी, जम्बूकुमार के नेतृत्व में आर्य-प्रवर श्री सुधर्मा स्वामी जी महाराज की शरण में उपस्थित होते हैं और उनसे संयम के साधना-क्रम को जान कर तथा अपने समस्त हानि-लाभ को विचार कर अंत में श्री सुधर्मा स्वामी से दीक्षा-व्रत स्वीकार कर लेते हैं और अपने को मोक्ष पथ के पथिक बना लेते हैं। .. मूलसूत्र में जिस जम्बू का वर्णन है, ये हमारे यही जम्बू हैं जो आठ पत्नियों कों और एक अरब 15 करोड़ मोहरों- स्वर्णमुद्राओं की सम्पत्ति को तिनके की भांति त्याग कर साधु बने थे और जिन्होंने उग्रसाधना के प्रताप से कैवल्य को प्राप्त किया था। आज का निग्रंथ-प्रवचन इन्हीं के प्रश्रों और श्री सुधर्मा स्वामी के उत्तरों में उपलब्ध हो रहा है। महामहिम श्री जम्बू स्वामी ही इस अवसर्पिणी काल के अंतिम केवली एवं सर्वदर्शी थे। इनका गुणानुवाद जितना भी किया जाए उतना ही कम है, तभी तो कहा है-"यति न जम्बू सारिखा" प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [99