________________ उप्पन्नसंसए, उप्पन्नकोउहल्ले, संजायसड्ढे , संजायसंसए, संजायकोउहल्ले, समुप्पन्नसड्ढे, समुप्पन्नसंसए, समुप्पन्नकोउहल्ले उट्ठाए, उढेइ, उट्ठाए, उठूत्ता.........। [छाया-जातसंशयः, जातकुतूहलः, उत्पन्नश्रद्धः, उत्पन्नसंशयः, उत्पन्न-कुतूहलः, संजातश्रद्धः, संजातसंशयः, संजातकुतूहलः, समुत्पन्नश्रद्धः, समुत्पन्नसंशयः, समुत्पन्नकुतूहलः, उत्थायोतिष्ठति, गौतमसगोत्रः सप्तोत्सेधः समचतुरस्रसंस्थानसंस्थितः वज्रर्षभनाराचसंहननः कनकपुलकनिकषपद्मगौर: उग्रतपाः दीप्ततपाः तप्ततपाः उदारः घोरः घोरगुणः घोरतपस्वी घोरब्रह्मचर्यवासी उच्छूढशरीरः संक्षिप्तविपुलतेजोलेश्यः चतुर्दशपूर्वी चतुर्ज्ञानोपगतः सर्वाक्षरसन्निपाती श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अदूरसामन्ते ऊर्ध्वजानु: अध:शिराः ध्यानकोष्ठोपगतः संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरति॥ ___अर्थात् उस काल और उस समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ज्येष्ठ-प्रधान अन्तेवासी-शिष्य इन्द्रभूति नामक अनगार भगवान के पास संयम और तपस्या के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए विहरण कर रहे हैं; जो कि गौतम गौत्र वाले हैं, जिन का शरीर सात हाथ प्रमाण का है, जो पालथी मार कर बैठने पर शरीर की ऊंचाई और चौड़ाई बराबर हो ऐसे संस्थान वाले हैं, जिनका वज्रर्षभनाराच संहनन है, जो सोने की रेखा के समान और पद्मपराग, कमल के रज के समान वर्ण वाले हैं, जो उग्रतपस्वी (साधारण मनुष्य जिस की कल्पना भी नहीं कर सकता उसे उग्र कहते हैं और उग्र तप के करने वाले को उग्र तपस्वी कहते हैं ), दीप्ततपस्वी (अग्नि के समान जाज्वल्यमान को दीप्त कहते हैं, कर्म रूपी गहन वन को भस्म करने में समर्थ तप के करने वाले को दीप्त तपस्वी कहते हैं) तप्ततपस्वी (जिस तप से कर्मों को सन्ताप हो-कर्म नष्ट हो जाएं, उस तप के करने वाले को तप्ततपस्वी कहते हैं), महातपस्वी (स्वर्ग प्राप्ति आदि की आशा से रहित निष्काम भावना से किए जाने वाले महान तप के करने वाले को महातपस्वी कहते हैं, जो उदार हैं, जो आत्म शत्रुओं को विनष्ट करने में निर्भीक हैं, जो दूसरों के द्वारा दुष्प्राप्य गुणों को धारण करने वाले हैं, जो घोर तप के अनुष्ठान से तपस्वी पद से अलंकृत हैं, जो दारुण ब्रह्मचर्य व्रत के धारण करने वाले हैं, जो शरीर पर ममत्व नहीं रख रहे हैं, जो अनेक योजन प्रमाण क्षेत्राश्रित वस्तु के दहन में समर्थ ऐसी विस्तीर्ण तेजोलेश्या विशिष्ट-तपोजन्य लब्धिविशेष) को संक्षिप्त किये हुए हैं, जो 14 पूर्वो के ज्ञाता हैं, जो चार ज्ञानों के धारण करने वाले हैं, जिन को समस्त अक्षर-संयोग का ज्ञान है, जिन्होंने उत्कुटुक नाम का आसन लगा रखा है, जो अधोमुख हैं, जो धर्म तथा शुक्ल ध्यान रूप कोष्ठक में प्रवेश किये हुए हैं, तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार कोष्ठक में धान्य सुरक्षित रहता है उसी प्रकार ध्यान रूप कोष्ठक में प्रविष्ट हुए आत्म-वृत्तिओं को सुरक्षित किये हुए हैं, अर्थात् जो अशुभ वातावरण से रहित है, और जो विशुद्ध चित्त वाले हैं। यहां पर परमतपस्वी और परमवर्चस्वी भगवान् गौतमस्वामी के साधुंजीवन के साथ आर्य जम्बूस्वामी के जीवन की तुलना कर के उनका उत्कर्ष बतलाना ही सूत्रकार को अभिप्रेत है। दूसरे शब्दों में कहें तो जिस प्रकार गौतमस्वामी अपना साधु-जीवन व्यतीत करते थे उसी प्रकार की जीवनचर्या जम्बूस्वामी ने की थी-यह बतलाना इष्ट है। (1) जैनशास्त्रों में संहनन के छ: भेद उपलब्ध होते हैं। उन में सर्वोत्तम वज्रर्षभ नाराच संहनन है। ऋषभ का अर्थ पट्टा है और वज्र का अर्थ कीली है, नाराच का अर्थ है दोनों ओर खींच कर बंधा होना, ये तीनों बातें जहां विद्यमान हों, उसे वज्रर्षभनाराच संहनन कहते हैं। जैसे लकड़ी में लकड़ी जोड़ने के लिये पहले लकड़ी की मजबूती देखी जाती है फिर कीली देखी जाती है और फिर पत्ती देखी जाती है। अर्थात् गौतम स्वामी का शरीर हड्डियों की दृष्टि से सुदृढ़ एवं सबल था। 106 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध