________________ गोतमं-भगवान् गौतम स्वामी के प्रति / एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगी। 1 गोतमा !-हे गोतम ! से के णं-वह कौन। तहारूवे-तथारूप-ऐसे।णाणी-ज्ञानी। तवस्सी वा-अथवा तपस्वी हैं / जेण-जिस ने। तव एसमढ़े-आपको यह बात, जो कि। मम ताव रहस्सकते-मैंने गुप्त रक्खी थी। तुब्भं हव्वमक्खातेतुम्हें शीघ्र ही बता दी। जतो णं-जिस से कि। तुब्भे जाणह-तुम ने उसे जान लिया। मूलार्थ-हे गौतम ! इसी मृगाग्राम नामक नगर में विजय नामक क्षत्रिय राजा का पुत्र मृगादेवी का आत्मज मृगापुत्र नामक बालक है जो कि जन्म काल से अंधा और जन्मांधकरूप है, उसके हाथ, पांव, नेत्र आदि अंगोपांग भी नहीं हैं, केवल उन अंगोपांगों के आकार चिन्ह ही हैं। महारानी मृगादेवी उस का पालन पोषण बड़ी सावधानी के साथ कर रही हैं। तदनन्तर भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के चरणों में वंदना नमस्कार कर के उन से प्रार्थना की, कि भगवन् ! आप की आज्ञा से मैं मृगापुत्र को देखना चाहता हूं ? इस के उत्तर में भगवान् ने कहा कि-गौतम ! जैसे तुम्हें सुख हो [वैसा करो, इस में हमारी ओर से कोई प्रतिबन्ध नहीं है ] / अब श्रमण भगवान् द्वारा आज्ञा प्राप्त कर प्रसन्न हुए गौतम स्वामी भगवान् के पास से मृगापुत्र को देखने चले। ईर्यासमिति (विवेक पूर्वक चलना) का यथाविधि पालन करते हुए भगवान् गौतम स्वामी ने नगर के मध्यभाग से नगर में प्रवेश किया।जिस स्थान पर मृगादेवी का घर था, वे वहां पर पहुंच गए। तदनन्तर मृगादेवी ने गौतम स्वामी को आते हुए देखा और देख कर प्रसन्न-चित्त से नतमस्तक होकर उन से इस प्रकार निवेदन किया-हे देवानुप्रिय ! अर्थात् हे भगवन् ! आपके आगमन का क्या प्रयोजन है ? अर्थात् आप किस प्रयोजन के लिए यहां पर पधारे हैं? उत्तर में भगवान् गौतम स्वामी ने मृगादेवी से कहा-हे देवानुप्रिये!, अर्थात् हे भद्रे !, मैं तुम्हारे पुत्र को देखने के लिए ही आया हूं। तब मृगदेवी ने मृगापुत्र के 1. "संदिसतु णं देवाणुप्पिया!-" तथा "एए-णं भंते ! मम पुत्ते" इत्यादि पाठों में मृगादेवी ने भगवान् गौतम को देवानुप्रिय या भदन्त के सम्बोधन से सम्बोधित किया है, परन्तु इस पाठ में उस ने "गोतमा!" इस सम्बोधन से उन्हें पुकारा है, ऐसा क्यों ? गुरुओं को उन्हीं के नाम से पुकारना कहाँ की शिष्टता है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि यहां मृगादेवी की शिष्टता में सन्देह वाली कोई बात प्रतीत नहीं होती परन्तु अपने अत्यन्त गुप्त रहस्य के प्रकाश में आ जाने से मृगादेवी हक्की-बक्की सी रह गई, जिस के कारण उसके मुख से सहसा "गोतमा!" ऐसा निकल गया है, जो संभ्रान्त दशा के कारण शिष्टता का घातक नहीं कहा जा सकता। हृदयगत चंचलता में यह सब कुछ संभव होता है। 2. प्रश्न- चरम-तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी सर्वज्ञ थे, सर्वदर्शी थे, उन की ज्ञान ज्योति से कोई पदार्थ ओझल नहीं था। यही कारण है कि उन की वाणी में किसी प्रकार की विषमता नहीं होती थी, वह पूर्णरूपेण यथार्थ ही रहती थी। परन्तु अनगार गौतम मृगापुत्र को स्वयं अपनी आंखों से देखने जा रहे हैं जब कि भगवान् से उस का समस्त वृत्तान्त सुन लिया जा चुका है। क्या यह भगवद्-वाणी पर अविश्वास नहीं ? 136 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध