________________ भी अपने पूर्वरूप खुले रहने का प्रतीक है-" यह शंका होती है उसका कारण इतना ही है कि शंकाशील व्यक्ति मुख का शक्यरूप अर्थ ग्रहण किए हुए है जब कि यहां मुख शब्द अपने लक्ष्यार्थ का बोधक है। मुख का लक्ष्यार्थ है नाक, नाक का बान्धना शास्त्रसम्मत एवं प्रकरणानुसारी है। जिस के विषय में पहले काफी विचार किया जा चुका है। ___ मुख-वस्त्रिका मुख पर लगाई जाती थी इस की पुष्टि जैन दर्शन के अतिरिक्त वैदिक दर्शन में भी मिलती है। शिवपुराण में लिखा है हस्ते. पात्रं दधानाश्च तुण्डे वस्त्रस्य धारकाः। मलिनान्येव वस्त्राणि, धारयन्तोऽल्पभाषिणः॥ [अध्याय 21 श्लोक 95] अस्तु अब विस्तार भय से इस पर अधिक विवेचन न करते हुए प्रकृत विषय पर आते हैं तदनन्तर जब महारानी मृगादेवी ने मुख को पीछे की ओर फेर कर भूमिगृह के द्वार का उद्घाटन किया, तब वहां से दुर्गन्ध निकली, वह दुर्गन्ध मरे हुए सर्पादि जीवों की दुर्गन्ध से भी भीषण होने के कारण अधिक अनिष्ट-कारक थी। यहां पर प्रस्तुत सूत्र के - “अहिमडे इवा जाव ततो वि" पाठ में उल्लिखित हुए "जाव-यावत्" पद से निम्नोक्त पदों का ग्रहण करना अभीष्ट है- गोमडे इजाव मयकुहिय-विणट्ठ-किमिण-वावण्ण-दुरभिगंधे किमिजालाउले संसत्ते असुइ-विगय-वीभत्थ-दरिसणिजे, भवेयारूवे सिया ? णो इणढे समढे एत्तो अणिट्ठतराए चेव.....। (ज्ञाताधर्मकथांग-सूत्र अ० 12, सूत्र 91) "अणिद्वतराए चेव जाव गन्धे" पाठान्तर्गत "जाव" पद से "अकंततराए चेव अप्पियतराए चेव अमणुन्नतराए चेव अमणामतराए चेव" इन पदों का भी संग्रह कर लेना चाहिए। अब सूत्रकार अग्रिम प्रसंग का वर्णन करते हुए कहते हैंमूल-तते णं से मियापुत्ते दारए तस्स विपुलस्स असण-पाण-खाइम 1. मृत गाय के यावत् (अर्थात्-कुत्ता, गिरगिट, मार्जार, मनुष्य, महिष, मूषक, घोड़ा, हस्ती, सिंह, व्याघ्र, वृक (भेड़िया), और) चीता के कुथित-सड़े हुए, अतएव विनष्ट-शोथ आदि विकार से युक्त, कई प्रकार के कृमियों से युक्त, गीदड़ आदि द्वारा खाए जाने के कारण विरूपता को प्राप्त, तीव्रतर दुर्गन्ध से युक्त, जिस में कीड़ों का समूह बिल बिला रहा है और इसीलिए स्पर्श के अयोग्य होने से अशुचि चित्त में उद्वेगोत्पत्ति का कारण होने से विकृत और देखने के अयोग्य होने से वीभत्स शरीरों से जिस प्रकार असह्य दुर्गन्ध निकलती है उससे भी अनिष्ट दुर्गन्ध वहां से निकल रही थी। प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय . [149