________________ करने के अनन्तर हाथ जोड़कर सविनय निवेदन करने लगे ___ भगवन् ! शक्र देवेन्द्र देवराज सावद्य' (पाप युक्त) भाषा बोलते हैं या निरवद्य (पाप रहित)? भगवान बोले-गौतम ! देवेन्द्र देवराज सावद्य और निरवद्य दोनों प्रकार की भाषा बोलते हैं। गौतम-भगवन् ! देवेन्द्र देवराज सावध और निरवद्य दोनों प्रकार की भाषा का प्रयोग करते हैं, यह कहने का क्या अभिप्राय है ? __ भगवान् -गौतम ! देवेन्द्र देवराज जब सूक्ष्मकाय-वस्त्र अथवा हस्तादि से मुख को बिना ढक कर बोलते हैं तो वह उन की सावध भाषा होती है, परन्तु जब वे वस्त्रादि से मुख को ढक कर भाषा का प्रयोग करते हैं तब वह निरवद्य भाषा कहलाती है। भाषा का द्वैविध्य मुख को आवृत करने और खुले रखने से होता है। खुले मुख से बोली जाने वाली भाषा वायुकाया के जीवों की नाशिका होने से सावध और वस्त्रादि से मुख को ढक कर बोले जाने वाली भाषा जीवों की संरक्षिका होने से निरवद्य भाषा कहलाती है। ___इस प्रकार के वर्णन से स्पष्ट है कि मुख की यतना किए बिना-मुख को वस्त्रादि से . आवृत किए बिना भाषा का प्रयोग करना सावध कर्म होता है। सावध प्रवृत्तियों से अलग रहना ही साधुजीवन का महान् आदर्श रहा हुआ है, यही कारण है कि सावद्य प्रवृत्ति से बचने के लिए साधु मुख पर मुखवस्त्रिका का प्रयोग करते आ रहे हैं। __अब जरा मूल प्रसंग पर विचार कीजिए-जब महारानी मृगादेवी अपने ज्येष्ठ पुत्र मृगापुत्र को दिखाने के लिए भौरे में जाती है, तब वहां की भीषण एवं असह्य दुर्गन्ध से स्वास्थ्य दूषित न होने पावे, इस विचार से अपना नाक बान्धती हुई, भौरे के दुर्गन्धमय वायुमण्डल से अपरिचित भगवान् गौतम से भी नाक बान्ध लेने की अभ्यर्थना करती है। तब भगवान् गौतम ने भौरेका स्वास्थ्यनाशक दुर्गन्ध-पूर्ण वायुमण्डल जान कर और रानी की प्रेरणा पा कर पसीना आदि पोंछने के उपवस्त्र से अपने नाक को बान्ध लिया। यदि यहां बोलने का प्रसंग होता और सावध प्रवृत्ति से बचाने के लिए भगवान् गौतम को मुख पर मुखवस्त्रिका लगाने की प्रेरणा की जाती तो यह शंका अवश्य मान्य एवं विचारणीय थी परन्तु यहां तो केवल दुर्गन्ध से बचाव करने की बात है। बोलने का यहां कोई प्रसंग नहीं। "बन्धेह" पद से जो "-संयोग वियोग मूलक होता है इसी प्रकार मुख का बन्धन 2. भगवती-सूत्र शतक 16 उद्देशक 2 सूत्र 568 148 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध