________________ अर्थात् चन्दन पादपोद्यान से निकल कर ईर्यासमिति का पालन करते हुए मृगाग्राम नामक नगर की ओर चल पड़े। यहां पर गौतम स्वामी के गमन के सम्बन्ध में सूत्रकार ने 'अतुरियं जाव सोहेमाणेअत्वरितं यावत् शोधमानः' यह उल्लेख किया है। इस का तात्पर्य यह है कि मृगापुत्र को देखने की उत्कण्ठा होने पर भी उन की मानसिक वृत्ति अथच चेष्टा और ईर्यासमिति आदि साधुजनोचित आचार में किसी प्रकार का अन्तर नहीं आने पाया। वे मन्दगति से चल रहे हैं, इस में कारण यह है कि उन का मन स्थिर है-मानसिक वृत्ति में किसी प्रकार का क्षोभ नहीं है। वे अंसभ्रान्त रूप से जा रहे हैं अर्थात् उन की गमन क्रिया में किसी प्रकार की व्यग्रता दिखाई नहीं देती, क्योंकि उन में कायिक चपलता का अभाव है। इसीलिए वे युगप्रमाणभूत भूभाग के मध्य से ईर्यासमिति पूर्वक (सम्यक्तया अवलोकन करते हुए) गमन करते हैं। यह सब अर्थ "जाव'-यावत्" शब्द से संगृहीत हुआ है। "सोहेमाणे-शोधमानः" का अर्थ है-युग(साढ़े तीन हाथ) प्रमाण भूमि को देख कर विवेकपूर्वक चलना। इस में सन्देह नहीं कि महापुरुषों का गमन भी सामान्य पुरुषों के गमन से विलक्षण अथच आदर्श रूप होता है। वे इतनी सावधानी से चलते हैं कि मार्ग में पड़े हुए किसी क्षुद्रजीव को हानि पहुंचने नहीं पाती, फिर भी वे स्थान पर आकर उसकी आलोचना करते हैं, यह उनकी महानता है, एवं शिष्यसमुदाय को अपने कर्तव्य पालन की ओर आदर्श प्रेरणा है। तदनन्तर भगवान् गौतम स्वामी मृगाग्राम नगर के मध्य में से होते हुए मृगादेवी के घर में पहुंचे तथा उन को आते देख मृगादेवी ने बड़ी प्रसन्नता से उन का विधिपूर्वक स्वागत किया और पधारने का प्रयोजन पूछा। "पासित्ता हट्ट जाव वयासी" इस पाठ में उल्लेख किए गए "जाव-यावत्" पद में भगवती-सूत्रीय 15 वें शतक के निम्नलिखित पाठ के ग्रहण करने की ओर संकेत किया गया है....... हट्ठतुट्ठचित्तमाणंदिया, पीइमणा, परमसोमणस्सिया, हरिसवसविसप्पमाणहियया खिप्पामेव आसणाओ अब्भुढेइ गोयमंअणगारं सत्तट्ठपयाइं अणुगच्छइ 2 तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेति करित्ता वंदित्ता णमंसित्ता......। ... सारांश यह है कि महारानी मृगावती अपने घर की ओर आते हुए भगवान् गौतम 1. यावत्-करणादिदं दृश्यम्-अचवलमसंभंते जुगंतर-पलोयणाए दिट्ठीए पुरओ रियं-तत्राचपलं कायचापल्यभावात्, क्रियाविशेषणे चैते तथा असंभ्रान्तो भ्रम-रहितः, युगं यूपस्तत्प्रमाणो भूभागोऽपि युगं तस्यान्तरे मध्ये प्रलोकनं यस्याः सा तथा तया दृष्ट्या-चक्षुषा "रियं" इति ईर्या-गमनं तद्विषयो मार्गोऽपीर्याऽतस्ताम्। प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [139