________________ अभिप्रेत है। जैनागमों में ज्ञान पांच प्रकार का बताया गया है जैसे कि (1) मतिज्ञान-इन्द्रिय और मन की सहायता से योग्य देश में रही हुई वस्तु को जानने वाला ज्ञान मतिज्ञान कहलाता है। इस का दूसरा नाम आभिनिबोधिक ज्ञान भी है। . (2) श्रुतज्ञान-वाच्य वाचक भाव सम्बन्ध द्वारा शब्द से सम्बद्ध अर्थ को ग्रहण कराने वाला; इन्द्रिय मन कारणक ज्ञान श्रुतज्ञान है अथवा-मतिज्ञान के अनन्तर होने वाला और शब्द तथा अर्थ की पर्यालोचना जिसमें हो ऐसा ज्ञान श्रुत-ज्ञान कहलाता है। __ (3) अवधिज्ञान-इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना मर्यादा को लिए हुए रूंपीद्रव्य का बोध कराने वाला ज्ञान अवधिज्ञान कहलाता है। (4) मनःपर्यवज्ञान-इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना मर्यादा को लिए हुए संज्ञी जीवों के मनोगतभावों को जिससे जाना जाए वह मनःपर्यव ज्ञान है। (5) केवलज्ञान-मति आदि ज्ञान की अपेक्षा बिना, त्रिकाल एवं त्रिलोकवर्ती समस्त पदार्थों का युगपत् हस्तामलक के समान बोध जिससे होता है वह केवलज्ञान है। इन पूर्वोक्त पंचविध ज्ञानों में से आर्य सुधर्मा स्वामी ने प्रथम के चारों ज्ञानों को प्राप्त किया हुआ था। "......चरमाणे जाव जेणेव" इस पाठ में "जाव-यावत्" पद से "गामाणुगामं दूइज्जमाणे सुहंसुहेण विहरमाणे" [ग्रामानुग्रामं द्रवन् सुखसुखेन विहरन्] अर्थात् अप्रतिबद्धविहारी होने के कारण ग्राम और अनुग्राम [२विवक्षित ग्राम के अनन्तर का ग्राम] में चलते हुए साधुवृति के अनुसार सुखपूर्वक विहरणशील-यह जानना। "अहापडिरूवं जाव विहरइ" इस पाठ में उल्लेख किए गए "जाव-यावत्" शब्द से- "उग्गहं उग्गिण्हइ अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणंतवसा अप्पाणं भावेमाणे" [अवग्रहं उद्गृण्हाति यथा-प्रतिरूपमवग्रहमुद्गृह्य संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् ] अर्थात् साधु वृत्ति के अनुकूल अवग्रह-आश्रय उपलब्ध कर संयम और तप के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए-भावनायुक्त करते हुए विचरण करने लगे-यह ग्रहण करना। तब इस समग्र आगम पाठ का संकलित अर्थ यह हुआ कि-उस काल तथा उस समय में जातिसम्पन्न, कुलसम्पन्न (1) क-नाणं पंचविहं पण्णत्तं, तंजहा-आभिणिबोहियणाणं, सुयणाणं, ओहिणाणं, मणपज्जवणाणं केवलणाणं। छाया- ज्ञान पंचविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-आभिनिबोधिकज्ञानं, श्रुतज्ञानम्, अवधिज्ञानम्, मन-पर्यवज्ञानम् केवलज्ञानम्। [अनुयोग-द्वार सूत्र] ख-मति-श्रुतावधि-मन:-पर्याय केवलानि ज्ञानम् ,, [तत्त्वार्थ सू. 1 / 9 / ] 2. ग्रामश्चानुग्रामश्च ग्रामानुग्रामः विवक्षित-ग्रामानन्तरग्रामः तं द्रवन् गच्छन् एकस्माद् ग्रामादनन्तरं ग्राममनुल्लंघयन्नित्यर्थः। 104 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध