________________ और बल, रूपादिसम्पन्न, चतुर्दश पूर्वो के ज्ञाता चतुर्विध ज्ञान के धारक तथा पांच सौ साधुओं के साथ क्रमशः विहार करते हुए पूर्णभद्र नामक चैत्य में साधु-वृत्ति के अनुकूल अवग्रहआश्रय ग्रहण कर विचरने लगे। आर्य सुधर्मा स्वामी के पधारने पर नगर की श्रद्धालु जनता उनके दर्शनार्थ एवं धर्मोपदेश सुनने के लिए आई और धर्मोपदेश सुनकर उसे हृदय में धारण कर चली गई। ___"अजसुहम्मस्स अन्तेवासी अज-जम्बू णामं अणगारे सत्तुस्सेहे" इस पाठ से आर्य सुधर्मा स्वामी के वर्णन के अनन्तर अब सूत्रकार उनके प्रधान शिष्य श्री जम्बूस्वामी के सम्बन्ध में कहते हैं___जम्बू स्वामी का शारीरिक मान सात हाथ का था। सूत्रकार ने इन के विषय में अधिक कुछ न लिखते हुए केवल गौतम स्वामी के जीवन के समान इनके जीवन को बता कर इनकी आदर्श साधुचर्या का संक्षेप में परिचय दे दिया है। श्री गौतम स्वामी के साधु जीव की शारीरिक, मानसिक और आत्म-सम्बन्धी विभूति का वर्णन श्री भगवती सूत्र [श. 1. उ० 1] में किया गया है। "जायसड्ढे जाव जेणेव" इस पाठ में उल्लिखित "जाव" शब्द से निम्नलिखित इतना और जान लेने की सूचना है, जैसा कि.....जायसंसए, जायकोउहल्ले, उप्पन्नसड्ढे, 1. जैन शास्त्रों में नापने के परिमाणों का अंगुलों द्वारा बहुत स्पष्ट वर्णन मिलता है। अंगुल तीन प्रकार के होते हैं-(१) प्रमाणांगुल (2) आत्मांगुल (3) और उत्सेधांगुल। जो वस्तु शाश्वत है-जिस का नाश नहीं होता, वह प्रमाणांगुल से नापी जाती है, ऐसी वस्तु का जहां परिमाण कहा गया हो, वहां प्रमाणांगुल से ही समझना चाहिए। आत्मांगुल से तत्तत्कालीन नगर आदि का परिमाण बतलाया जाता है। इस पांचवें आरे को साढे दस हज़ार वर्ष बीतने पर उस समय के जो अंगुल होंगे उन्हें उत्सेधांगुल कहते हैं। जम्बू स्वामी का शरीर उत्सेधांगुल से सात * हाथ का था। इस प्रकार यद्यपि जम्बू स्वामी के हाथ से उन का शरीर साढ़े तीन हाथ का ही था परन्तु पांचवें आरे के साढ़े दस हजार वर्ष बीत जाने पर यह साढ़े तीन हाथ ही सात हाथ के बराबर होंगे, इसी बात को दृष्टि में रख कर ही जम्बूस्वामी का शरीर सात हाथ लम्बा बतलाया गया है। 2. भगवती सूत्र का वह स्थल दर्शनीय एवं मननीय होने से पाठकों के अवलोकनार्थ यहाँ पर उद्धृत किया जाता है "तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेटे अंतेवासी इदंभूती नामं अणगारे गोयमसगोत्तेणं सत्तुस्सेहे समचउरंस-संठाण-संठिए वजरिसहनारायसंघयणे कणगपुलगणिग्यसपम्हगोरे उग्गतवे दित्ततवे तत्ततवे महातवे ओराले घोरे, घोरगुणे घोरतवस्सी घोरबंभचेरवासी उच्छूढसरीरे संखित्तविउलतेउलेसे चोद्दसपुव्वी चउणाणोवगए सव्वक्खरसन्निवाई समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते उड्ढंजाणू अहोसिरे झाणकोडोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं-भावेमाणे विहरड"॥ . छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य ज्येष्ठोऽन्तेवासी इन्द्रभूति माऽनगारः प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [105