________________ स्वयं मालूम नहीं पड़ता मगर वह होता अवश्य है। अवग्रह न होता तो आगे के ईहा, अवाय, धारणा आदि ज्ञानों का होना संभव नहीं था। क्योंकि बिना अवग्रह के ईहा, बिना ईहा के अवाय और बिना अवाय के धारणा नहीं होती। ज्ञानों का यह क्रम निश्चित है। अवग्रह के बाद ईहा होती है। यह कुछ है इस प्रकार का अर्थावग्रह ज्ञान जिस वस्तु के विषय में हुआ था, उसी वस्तु के सम्बन्ध में भेद के विचार को ईहा कहते हैं। यह वस्तु अमुक गुण की है, इसलिए अमुक होनी चाहिए, इस प्रकार का कुछ-कुछ कच्चा या पक्का ज्ञान ईहा कहलाता है। ___ ईहा के पश्चात् अवाय का ज्ञान होता है। जिस के सम्बन्ध में ईहा ज्ञान हुआ है, उसके सम्बन्ध में निर्णय-निश्चय पर पहुंच जाना अवाय है। "यह अमुक वस्तु ही है" इस ज्ञान को अवाय कहते हैं। "यह खड़ा हुआ पदार्थ ठूण्ठ होना चाहिए" इस प्रकार का ज्ञान ईहा और यह पदार्थ यदि मनुष्य होता है तो बिना हिले डुले एक ही स्थान पर खड़ा न रहता, इस पर पक्षी निर्भय हो कर न बैठता, इसलिए यह मनुष्य नहीं है ठूण्ठ ही है इस प्रकार का निश्चयात्मक ज्ञान अवाय कहलाता है। अर्थात् जो है उसे स्थिर करने वाला और जो नहीं है, उसे उठाने वाला निर्णय रूप ज्ञान अवाय है। चौथा ज्ञान धारणा है। जिस पदार्थ के विषय में अवाय हुआ है, उसी के सम्बन्ध में धारणा होती है। धारणा, स्मृति और संस्कार ये एक ही ज्ञान की शाखाएं हैं। जिस वस्तु में अवाय हुआ है उसे कालान्तर में स्मरण करने के योग्य सुदृढ़ बना लेना धारणा ज्ञान है। कालान्तर में उस पदार्थ को याद करना स्मरण है और स्मरण का कारण संस्कार कहलाता है। तात्पर्य यह है कि अवाय से होने वाला वस्तुतत्त्व का निश्चय कुछ काल तक तो स्थिर रहता है और मन का विषयान्तर से सम्बन्ध होने पर वह लुप्त हो जाता है। परन्तु लुप्त होने पर भी. मन पर ऐसे संस्कार छोड़ जाता है कि जिस से भविष्य में किसी योग्य निमित्त के मिल जाने पर उस निश्चय किए हुए विषय का स्मरण हो आता है। इस निश्चय की सततधारा, धाराजन्य संस्कार तथा संस्कारजन्य स्मृति ये सब धारणा के नाम से अभिहित किए जाते हैं। यदि संक्षेप में कहें तो अवाय द्वारा प्राप्त ज्ञान का दृढ़ संस्कार धारणा है। पहले आचार्य का कथन है कि जम्बूस्वामी को प्रथम श्रद्धा, फिर संशय और कौतूहल में प्रवृत्ति हुई। ये तीनों अवग्रह ज्ञान रूप हैं। प्रश्न होता है कि यह कैसे.मालूम हुआ कि जम्बू स्वामी को पहले पहल अवग्रह हुआ? इस का उत्तर यह है-पृथ्वी में दाना बोया जाता है। दाना, पानी का संयोग पाकर पृथ्वी में गीला होता है-फूलता है और तब उस में अंकुर निकलता है। अंकुर जब तक पृथ्वी से बाहर नहीं निकलता, तब तक दीख नहीं पड़ता। मगर जब अंकुर प्रथम श्रुतस्कंध ] . श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [113