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*प्रथम सर्ग *
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सार्थपतिको सम्मानित किया और तुरत उसका कर माफ़ कर दिया। इसके बाद राजाने अपने मनमें सोचा, – “मैं अकेला ही यह फल क्यों खाऊँ ? ऐसा काम करना चाहिये, जिससे सारी प्रजाको सुख हो ।” यही विचार कर राजाने मालीको बुलाकर उस फलका बीज रोपनेके लिये कहा। साथ ही उसकी रखवालीके लिये' अपनी ओरसे आदमी तैनात कर दिये । मालीने भो बड़ी अच्छी जगहमें उस फलको रोप दिया । धीरे-धीरे उसमेंसे अङ्कुर निकला । इस समय राजाने उत्सव किया और अपनेको वैसा ही कृतार्थ माना जैसा पुत्र जन्म होनेसे मानते। साथ ही उन्होंने उस माली और पहरेदारोंको वस्त्रादिक देकर भी सन्तुष्ट किया । ज्यों-ज्यों उस अङ्क ुरमें पल्लव निकलते, त्यों-त्यों राजा रोज आकर उसे देख जाते थे। इस तरह जैसे-जैसे वह पेड़ बढ़ने लगा, वैसे-वैसे राजाके मनोरथ भी बढ़ने लगे । इसी तरह क्रमसे उस पेड़में मंजरियाँ निकल आयीं । धीरे-धीरे वह पेड़ फलोंसे लद गया । राजाने सोचा कि अब हमारी प्रजा रोग और बुढ़ापेके पंजेसे छूट गयी । इन्हीं दिनों एक बाज़के द्वारा पकड़े हुए साँपके मुँहसे एक फलपर विष टपक पड़ा । विषकी गरमोसे वह फल तुरत ही पककर नीचे गिर पड़ा। मालीने वह फल ले जाकर राजाके सामने रखा। राजा ने उसे इनाम देकर बिदा किया और वह फल अपने पुरोहितको दे दिया !
पुरोहितने उस फलको घर ले जाकर पूजापाठ करनेके बाद बड़ी प्रसन्नताके साथ खाया और खाते ही वह मर गया। शोकले