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* प्रथम सर्ग राजा उसे बहुत ही प्रेम करता था। दोनों एक दूसरेपर पूर्ण अनुराग रखते थे। दोनों एक दूसरेको पाकर सुखी थे। दोनोंके दिन बड़े आनन्दसे व्यतीत हो रहे थे।
चौथा भव। कुछ दिनोंके बाद गजका जीव देव-योनिसे च्युत होकर इन्हीं राज-दम्पतिके यहाँ पुत्र रूपमें उत्पन्न हुआ। बत्तीस लक्ष्णोंसे युक्त इस पुत्रको देखकर राजा-रानीको बड़ा ही आनन्द हुआ। उन्होंने इस कुमारका नाम किरणवेग रखा। इसके लालन-पालनका भार पाँव धात्रियोंको सौंपा गया। क्रमशः जब वह कुछ बड़ा हुआ तब पाठशालामें विद्याध्ययन करने लगा। युवावस्था प्राप्त होते-न-होते वह समस्त विद्या और कलाओंमें पारंगत हो गया। राजाने जब देखा कि कुमारने विद्या-कलाओंका यथेष्ट ज्ञान प्राप्त कर लिया हैं और उसको अवस्था विवाह करने योग्य हो गयो है, तब उन्होंने सामन्त राजकी पद्मावती नामक कन्याके साथ उसका विवाह कर, उसी समय उसे युवराज भी बना दिया।
कुछ दिनोंके बाद गुरु-कृपासे राजाको संवेगको प्रप्ति हुई। उसने किरणवेगको राज्य-भार सोंप देना स्थिर किया। इसके लिये मन्त्रियोंसे भी सलाह ली। उन्होंने कहा,“राजन् ! किरणवेग सभी तरहसे आपका यह गुरुतर भार सम्हालने योग्य हैं । आपका यह विचार बहुत ही उत्तम है। इसमें किसीको किसी प्रकारकी आपत्ति नहीं हो सकती।