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* पार्श्वनाथ चरित्र *
उन्हें इस समय एक दूसरेके मिलनेपर जो आनन्द हुआ, वह raat था । यह केवल शील और सत्यका प्रताप था। इसीके प्रतापसे इन्हें राज्य की प्राप्ति हुई थी। कुछ ही दिनोंमें यह समाचार फैलता हुआ धारापुर जा पहुँचा। वहां राजाका स्वामिभक्त मन्त्रो राजसिंहासनपर राजाकी पादुकाओंको स्थापित कर राज्य चला रहा था । राजपरिवारका पता मिलते ही उसने पत्र देकर एक दूतको राजाकी सेवा में भेजा । पत्रमें उसने नम्रता पूर्वक राजासे स्वदेश लौट आनेकी और अपना राज्य- भार सम्हाल लेनेकी प्रार्थना की थी ।
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मन्त्रीका यह पत्र पढ़कर राजाको बड़ी प्रसन्नता हुई। वह मन-ही-मन मन्त्रीकी ईमानदारी और स्वामि भक्तिकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगा । वह कहने लगा- “ वास्तवमें जो सज्जन होते हैं, वे कभी भी अपनी प्रकृतिमें परिवर्तन नहीं होने देते । किसी कहा भी है कि :
तप्तं तप्तं पुनरपि पुनः कांचन कांतवा ।
घृष्टं धृष्टं पुनरपि पुनश्चंदनं चारुगन्धम् ॥
विचिनः पुनरपि पुनः स्वादुवा निक्षुदण्डः । प्राणांतेऽपि प्रकृति विकृति जयते नोत्समानाम् ॥
अर्थात् - " जिस प्रकार सोनेको बारंबार तपानेसे उसका वर्ण अधिकाधिक सुन्दर होता जाता है, चन्दनको बारंबार घिस - नेसे उसकी सुगन्ध बढ़ती जाती है, ईश्वरको बारम्बार छेदनेसे उसकी मधुरता बढ़ती जाती है, उसी प्रकार उत्तम जनों का स्वभाव प्राणान्त होनेपर भी विकृत नहीं होता । "