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* पार्श्वनाथ-चरित्र * स्नान-विलेपन करना भी छोड़ दिया है। अधिक क्या कहूं, इसने मुझसे भी बोलना छोड़ दिया है। यह इसी तरह श्वेतवस्त्र पहन कर कष्टपूर्वक रहती है और रात दिन तेरा ही नाम लिया करती है। यह तेरे लिये इतना कष्ट सहन कर रही है और तू अकेला आनन्द कर रहा है ? खैर, अब मैं और अधिक कहना नहीं चाहती, तुझे जो अच्छा लगे सो कर!"
बुढ़ियाको यह कपटपूर्ण बातें सुनकर वयरसेन अपने मनमें कहने लगा,-"यह दुष्टा फिर मुझे जालमें फंसाना चाहती है, लेकिन देखा जायगा। अव मैं इससे सावधान रहूंगा।” यह सोचकर उसने बुढ़ियासे कहा,-"मैया! तुम्हारा कहना ठोक है। तुम्हारी पुत्रोको भी दुःख होना स्वाभाविक है । अब जो कहो सो करूं ?" यह सुन बुढ़ियाने कहा-“बेटा ! कहने सुननेकी कोई बात नहीं है। तुम हमारे साथ चलो और जैसे हमारे यहां पहले रहते थे, उसो तरह रहा करो और हमारे घ को अपना ही घर समझो। यही मैं चाहती हूं और यही मेरा कहना है ।” बुढिथाकी यह बातें सुन वयरसेन फिर उसके यहां चला गया और पहलेहीकी तरह दान तथा कोड़ादिकमें काल व्यतीत करने गला।
कुछ दिनोंके बाद बुढ़ियाने पुनः मगधाको धनागमका कारण पूछनेके लिये प्रेरित किया। अबको मगधाने कहा, "मैया ! तेरे हृदयमें बड़ाही लोभ समाया है। तू वृक्षके फल न खाकर उसको मूलसे ही काट डालना चाहती है। मैं ऐसा प्रश्न न पूछ सक्गो ।