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* माठया सग rammarwarraramanarax.amraparnawr.aar.r
'कर्मसे निकृत्त हो राजा ज्योंही राज-सभामें पहुंचा त्योंही नगर निवासी हा हा कार करते हुए वहां आ पहुँचे। राजाके पूछने पर उन्होंने चोरीका सारा हाल कह सुनाया और कहा कि हम लोगोंकी सब मिला कर पचीस हजार स्वर्ण मुद्रार्य चोरी गयी है। यह सुनकर राजाने तुरत अपने भण्डारसे रकम देकर उन लोगोंको विदा किया। उन लोगोंके चले जाने पर राजाने कोतवालको उलाहना दे श्रीगुप्तको उसी समय बुला भेजा। उसके आनेपर राजाने आक्षेपपूर्वक कहा-“तूने रातको जो धन चुराया है, वह सब इसी समय लाकर उपस्थित कर। यह सुन श्रीगुप्तने नम्रतापूर्वक उत्तर दिया कि-"राजन् ! आप यह क्या कह रहे हैं ? हमारे कुलमें ऐसा कुकर्म होही नहीं सकता।" राजाने क्रुध होकर कहा, -- “यदि तूने चोरी नहीं की तो तुझे अपनी सफाई देनी होगी। यह सुन श्रीगुप्तने कहा-“मैं इसके लिये हर वक्त तैयार हूं।"
श्रीगुप्तको यह बात सुन राजाने लोहेका एक गोला गरम · करवाया और श्रीगुप्तको उसे उठानेकी आज्ञा दी। श्रीगुप्तको
अग्नि स्तम्भनका सिद्ध यन्त्र मालूम था। इसलिये उसने वह मन्त्र स्मरण कर उस गोलेको हाथमें उठा लिया। मन्त्रके प्रभावसे ' हाथोंका जलना तो दूर रहा, उसे गरम आंचतक न लगी। इससे उसकी निर्दोषिताका प्रमाण समझ कर, लोग उसकी जय-जय. कार करने लगे। श्रीगुप्त भी गर्वपूर्वक बड़े आडम्बरके साथ अपने घर चला गया।
यह घटनार देखकर राजाको बड़ा ही आधर्य और कुणा