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* आठवां सर्ग*
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उन्होंने श्रीगुप्तको गले लगा कर कहा-“हे वत्स! आज तुझे वर्षों के बाद देखकर मेरा हृदय बलियों उछल रहा है। तुझे देख कर आज मेरा सारा दुःख दूर हो गया। अब तू मेरे साथ घर चल। मैं अब तुझे अपनी इस वृद्धावस्थामें आंखोंसे ओट न होने दूंगा।"
पिताकी यह बातें सुन कर श्रीगुप्तके नेत्रोंसे अश्रुधारा बह चलो। उसने कहा-"पिताजो ! मैंने आपको बड़ा कष्ट दिया। अपने पिछले कर्मों के लिये अब मुझे बड़ा ही पश्चताप हो रहा है। उन्हों कर्मों के कारण मैं दरदर भटकता फिरा और न जाने कितने कष्ट उठाये। खैर, अब मैं वैसे कम कदापि न करूंगा। गुरुके आदेशानुसार मैंने शत्रुजय तीर्थ पर बारह वर्ष तपस्या कर पूर्व पापोंका प्रायश्चित भा कर लिया है और अब मैं यथा नियम जैन धर्मका पालन कर रहा हूं।"
पुत्रकी यह बात सुन मह धरको बड़ाही आनन्द हुआ। उसी समय वह श्रीगुप्तको अपने साथ घर लिवा ले गया। वहां पहुँच कर उसने सर्व प्रथम राजाको सारा हाल कह सुनाया। इससे राजाने अपनो पूर्व आज्ञा वापस ले ली और श्रीगुप्तको नगरमें रहनेकी आज्ञा दे दो। अब श्रगुप्त सानन्द वहां रह कर सामायिक, आवश्यक (नति क्रमण ) और पौषध आदि धर्म कार्य करने लगा। इसी तरह कई वर्ष व्यतीत हो गये। इस बीचमें श्रीगुप्तकी यथेष्ट ख्याति भो हो गयी।
एक दिन श्र.गुप्त सुबहके वक्त सामायिक कर नमस्कारका