Book Title: Parshwanath Charitra
Author(s): Kashinath Jain Pt
Publisher: Kashinath Jain Pt

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Page 589
________________ ५४२ * पार्श्वनाथ चरित्र # क्यों कर रहा है ? नरकके पीड़न, ताड़न, तापन और विदारण प्रभृति कष्ट तू कैसे सहन करेगा ? इन पापोंका फल तुझे बहुत दिनों तक भोग करना ही पड़ेगा । श्रीगुप्तने पूछा - " भगवन् ! क्या कोई ऐसा उपाय नहीं है, जिससे मैं इन कष्टो से छुटकारा पा सकूं ?” मुनिने कहा- क्यों नहीं ? किन्तु इसके लिये तुझे कुछ चेष्टा करनी होगी ।" श्रीगुप्तने कहा - " आप जो कहें, वह मैं करनेको तैयार हूं।" मुनिने कहाअच्छा, मैं बतलाता हूं ध्यान से सुन । यदि वास्तवमें तू इन कष्टोंसे मुक्ति लाभ करना चाहता है, तो हिंसा, चोरी और व्यसनोंको सर्वथा त्याग दे और श्री शत्रुजय तोर्थकी सेवा कर। वहां श्रद्धापूर्वक दान, तप और ध्यान करनेसे बड़ाहो लाभ होता है और सारे पाप विनाश हो जाते हैं। वहां रह कर प्रति वर्ष सात छट्ट और दो अट्टम कर, पारणके दिन सचित्तका त्याग कर एकाशन करना चाहिये । इस प्रकार बारह वर्ष पर्यन्त तप करनेसे कोटि जन्मके भी पाप विलय हो जाते हैं ।” मुनि की यह बात सुन श्रीगुप्तने कहा - " भगवन् ! मैं अवश्यही आपके आदेशानुसार आचरण करूगा ।" इसके बाद वह मुनिको वन्दन कर वहांसे शत्रुंजय पर्वत के लिये चल पड़ा। वहां पहुंचने पर उसने बारह वर्ष पर्यन्त तप कर अपने आत्माको निर्मल किया । अनन्तर वह गिरिल्लपुरमें अपने सामाके यहां गया । किसी तरह यह बात उसके पिताको मालूम हो गयी अतएव वे उसे बुलाने आये ! पुत्रको देखते ही उन्हें रोमाञ्च हो आया ।

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