Book Title: Parshwanath Charitra
Author(s): Kashinath Jain Pt
Publisher: Kashinath Jain Pt

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Page 582
________________ * आठवीं सर्ग * ५३५ 1 भगवानने कहा, “हे भद्र ! दुर्जनका संसगं छोड़कर साधुओंका समागम कर । रात दिन पुण्य कर, सदा संसारकी अनित्यताका स्मरण करता रह, औचित्यका उल्लंघन न कर, सद्गुरुकी सेवा कर, दानादिकमें प्रेम रख । हृदयमें केवल शुभ भावनाओंको ही स्थान दे और सदा अन्तर्दृष्टि रखकर वैराग्यकी भावनाओं पर विचार किया कर । मंगल जप, स्वदुष्कृतको गर्हा, चारण श्रमणोंको आराधना और पुण्यकार्यको अनुमोदना कर । परम ज्ञानकी प्राप्तिके लिये चेष्टा कर, अच्छे दृष्टान्तोंका मनन कर और धर्मशास्त्रका श्रवण कर । यही इस संसार में सारभूत है ।” भगवानका यह उपदेश सुननेके बाद चण्डसेनने पूछा“भगवन् ! मैं पापी, दुष्ट, दुराचारी, सात व्यसनों में आसक्त, चोर और स्त्री लम्पट हूं । बतलाइये, किस प्रकार मेरी शुद्धी हो सकती हैं ?" जगत् गुरु श्री पार्श्वनाथने कहा, “हे भद्र ! पापि प्राणी भी पाप कर्मका त्याग कर शुकृत करनेसे शुद्ध होता है । इस सम्बन्ध में श्रीगुप्तका दृष्टान्त मनन करने योग्य है । सुनः इस भरतक्षेत्र में वैजयन्ती नामक एक नगरी है। वहां न्यायी और प्रजापालक नल नामक एक राजा राज करता था। उसकी महीधर नामक एक बनजारेके साथ बड़ी मित्रता थी । महीधरके श्रीगुप्त नामक एक पुत्र था । वह सप्त व्यसनोंमें लीन और बड़ा ही पापी था वह रोज रात्रिको नगर में चोरी करता था । एक बार रात्रिके समय बहुत दुःखित हो महीधर राजाके पास गया। उसे उदास देख कर राजाने पूछा, "हे भद्र ! आज तू

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