Book Title: Parshwanath Charitra
Author(s): Kashinath Jain Pt
Publisher: Kashinath Jain Pt

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Page 580
________________ * आठवां सग* ५३३ कोड़ा कर रहा था। इसी समय वहां एक सिंह आ पहुंचा और वह उन दोनोंको खा गया। इस प्रकार उन दोनोंकी मृत्यु हो गयी। मृत्यु होनेपर नमस्कार ध्यानके प्रभावसे वे दोनों सौधर्म देव लोकमें पल्योपमके आयुष्यवाले देव हुए। यह आयु पूर्ण होनेपर शिखरसेनका जीव च्युत होकर महाविदेहकी चन्द्रपुरी नामक नगरी में कुरु मृगाङ्क राजाका पुत्र हुआ और उसका नाम मीनमुगाङ्क पड़ा। चन्द्रावतीका जीव च्युत होकर भूषण राजाके यहां कन्या रूपमें उत्पन्न हुआ और उसका नाम वसन्त. सेना पड़ा । क्रमशः दोनोंने जब यौवन प्राप्त किया, तब पूर्वजन्मके पोगसे उनका व्याह हो गया भोर वेसानन्द जीवन व्यतीत करने लगे। कुरुमृगाङ्क राजाने बहुत दिनोंतक राज किया । अन्तमें वैराग्य भानेपर उसने मीनमृगाङ्कको राज्य सौंपकर दीक्षा ले ली। मीनमृगाङ्कने अब वसन्तसेनाको अपनी पटरानी बनाया और यौवमसे मदोन्मत्त हो यथेच्छ आनन्द विहार करने लगा। उसे शिकारका व्यसन लग गया और इस व्यसनके कारण उसने अनेक तिर्यचोंका वध कर स्त्री और पुत्रोंसे उनका वियोग कराया। तियंचोंके भोगमें इस प्रकार अन्तराय करनेके कारण उसने भोगान्तराय कर्म संचित किया। वृषभ, अश्व और पुरुषोंको भी षंढ बनाकर एसने बहुतसा दुष्कर्म उपार्जन किया। इस प्रकार पाप और व्यसनोंमें परायण हो अन्तमें वह दाह ज्वरसे आक्रान्त हुआ और इसी रोगसे उसकी मृत्यु हो गयी। मृत्यु होनेपर यह रौद्रध्यापक कारण छठे नरकमें गया। वसन्तसेना पति वियोगके कारण

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