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* आठवाँ सर्ग ___ सागरदत्तको समुद्र मार्गसे व्यापार करनेका बड़ा शौक था। इसके लिये उसने सात बार समुद्र यात्राकी, किन्तु सातों बार उसकी नौकायें टूट गयीं। इससे उसको बड़ी हानि हुई। वह अपने मनमें कहने लगा-अब मैं क्या करूं? मेरे जीवनको धिक्कार है। इस तरह किंकर्तव्य विमूढ़ हो वह इधर उधर भटकने लगा। एक बार उसने देखा कि एक मनुष्य कुएं से पानी भर रहा है। उसने सात बार चेष्टा की, किन्तु पानी न आया। इससे हताश न होकर उसने आठवीं बार फिर प्रयत्न किया और इस बार पानी निकल आया।
यह घटना देखकर सागरदत्त अपने मनमें कहने लगा-मुझे भी एक बार और चेष्टा करनी चाहिये। संभव है कि इसी तरह मुझे भी सफलता मिल जाय । यह सोच कर उसने फिर यात्राकी तैयारी की और शुभ मुहूर्त देखकर नौकाके साथ सिंहलद्वीपके लिये प्रस्थान किया। सिंहलद्वीप पहुचनेपर वहांसे वह रत्नद्वीप गया और वहांसे अनेक रत्न लेकर वह अपने नगरके लिये वापस लौटा। रास्तेमें नाविकोंके मनमें लोभ समाया इसलिये उन्होंने रत्नोंको हाथ करनेके लिये रात्रिके सयय सागरदत्तको समुद्र में ढकेल लिया। किन्तु दैवयोगसे उसके हाथ एक काष्ट खण्ड लग जानेसे वह उसके सहारे तैरकर किनारे लगा। इसके बाद वह भ्रमण करता हुआ क्रमशः पाटलिपुत्रमें पहुंचा। वहां व्यापारके निमित्त गये हुए उसके श्वसुरसे उसकी भेट हुई। वह उसे अपने निवास स्थानमें ले गया और उसे स्नान भोजन कराया। स्नान