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* पार्श्वनाथ चरित्र *
भोजनसे निवृत्त होनेपर साजरदत्तने अपने श्वसुरको अपना अनन्तर श्वसुर ने उसे अपने पास रख
सारा हाल कह सुनाया लिया और वह भी उसके साथ रहने लगा ।
कुछ दिनोंके बाद उसकी नौकायें भी वहां आ पहुंची। सागरदत्तने राजाकी आज्ञा प्राप्त कर नाविकोंको अटकाया और अपने रत्न लेकर उन्हें मुक्त किया। इसके बाद सागरदत्त अपने घर आया और आनन्द करने लगा ।
अब वह ब्राह्मण, योगो और अन्य दर्शनवालोंको भी आहार और वस्त्रादिकका दान दे, उनसे पूछता, कि देव गुरु और धर्म किसे कहते हैं ? उसके इस प्रश्नका उत्तर कोई कुछ देता और . कोई कुछ ? इससे सागरदत्त कोई बात स्थिर न कर सका और विविध शास्त्र सुनने में अपना काल बिताने लगा ।
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एक दिन वह नगर के बाहर गया। वहां एक मुनिको ध्यानस्थ देखकर उसने उन्हें प्रणाम कर पूछा – “हे स्वामिन्! देव, गुरु और धर्म किसे कहते हैं और आप कौन हैं यह मुझसे सत्य सत्य कहिये ।” मुनिने कायोत्सर्ग से निवृत्त हो कहा, “हे महानुभाव ! मैं अनगार हूँ। मैंने राज्यका त्याग कर दीक्षा ग्रहण की है । इस समय मैं ध्यान कर रहा हूँ । तुझे सत्य बात बतलाने में मुझे कोई आपत्ति नहीं किन्तु वैसा करनेसे मेरा ध्यान भंग होता है। इस लिये वे सब बात मैं इस समय तुझे न बतलाऊंगा । कल यहां तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ प्रभु पधारेंगे। उन्हें बन्दन कर यह प्रश्न पूछने से वे तुझे सब बतला देवेंगे ।
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