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* पाश्र्श्वनाथ चरित्र *
उसका व्याह कर दिया । किन्तु सागरदत्त उसपर भी प्रेम न रखता था । उसकी इस विरक्तिसे उद्विग्न हो एक दिन उस स्त्रीने एक पत्रमें यह श्लोक लिख भेजा
"कुलीनामनु रक्तांच, किं स्त्रीं त्यजसि कोविद ! कौमुद्या हि शशी भाति, विद्युताब्दो गृही स्त्रिया ॥"
अर्थात् - " हे चतुर ! आप कुलीन और अनुरक्त स्त्रोका त्याग किस लिये करते हैं ? जिस प्रकार चन्द्रिकासे चन्द्र और बिजलीसे मेघको शोभा है, उसी तरह स्त्रीसे पुरुषकी शोभा है ।" इस श्लोक के उत्तर में सागरदत्तने निम्नलिखित श्लोक लिख भेजा:"स्त्री नदीवत् स्वभावेन, चपला नीच गामिनी । उवृत्ता च जड़ात्मा सौ पक्षद्वय विनाशिनी ।”
अर्थात् - " स्त्री स्वभावसेही नदोकी भांति चपल, अधोगामिनी और दोनों कुलोंकी विनाशक होती है।” यह श्लोक पढ़कर स्त्री अपने मनमें कहने लगी कि मालूम होता है, कि इन्हें पूर्व - जन्मकी बातें स्मरण आ रही है और इसो लिये यह स्त्रियोंको दोष दे रहे हैं। यह सोचकर उसने पुनः एक श्लोक लिख भेजा । वह श्लोक इस प्रकार था ।”
" एकस्या दूषय सर्वा, तज्जातिर्नैव दूष्यति ।
अमावास्येव रात्रित्वात, त्याज्येन्दोः पूर्णिमापि किम् ?' अर्थात् - " एकके दूषण से समस्त जाति दूषित नहीं होती । अमावस्या की रात्रि देखकर क्या कोई पूर्णिमाके चन्द्रका भी त्याग करता है ?” स्त्रीके इस श्लोकको पढ़नेसे सागरदत्तकी विरक्ति दूर हो गयी और वह उसी दिनसे अपनी पत्नीपर प्रेम करने लगा ।