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* आठवाँ सर्ग
बन्धुदत्तकी कथा ।
नागपुरीमें धनपति नामक एक धनो व्यापारी रहता था। उसे बन्धुदत्त नामक एक पुत्र था। उसका व्याह वसुनन्दकी कन्या चन्द्रलेखाके साथ होना स्थिर हुआ था। यथा समय व्याह भी हुआ किन्तु अभी चन्द्रलेखाके हाथका कंकण भी न छुटा था, कि उसे सर्पने डश लिया और उसके कारण उसकी मृत्यु हो गयी। बन्धुदत्तका पुनःविवाह हुआ किन्तु दूसरी स्त्रीकी भी यही गति हुई। इसी तरह बन्धुदत्तने छः व्याह किये किन्तु उसकी एक भो पत्नी जीवित न रहो। इस विचित्र घटनाके कारण बन्धुदत्त विष हस्त और विषवरके नामसे प्रसिद्ध हो गया। अब उसके साथ कोई अपनी कन्याका व्याह करनेको तैयार ही न होता था। उसके साथ व्याह करना, कन्याको जान बूझकर मृत्युके मुंहमें डालना था । यह भला कौन पसन्द करता? - इधर चिन्ताके कारण बन्धुदत्तका शरीर दिन प्रति दिन शुक्ल पक्षके चन्द्रकी तरह क्षीण होने लगा। उसकी यह अवस्था देख कर उसके पिताने उसे व्यापारार्थ विदेश यात्रा करनेकी सलाह दी। बन्धुदत्त इसके लिये तैयार हो गया । शीघ्र ही वह नौकाओं में बहुमूल्य चीजें लेकर शुभ मूहूर्तमें घरसे निकल पड़ा। विदेशमें उसका सितारा चमक उठा। वह जहीं जाता वहीं उसे यथेष्ट