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__ * आठवांस
गया। जिस काममें हाथ लगाता हूँ, उसी में कोई-न-कोई विध आ ही पड़ता है, अब मैं क्या करू और कहां जाऊ बहुत कुछ सोचनेके बाद बन्धुदत्तने स्थिर किया कि चाहे जो हो, एक बार मामाके यहां चलकर वहांका हाल तो देखना ही चाहिये। इसके बाद जो उक्ति प्रतीत होगा, वह किया जायगा। यह सोच कर बन्धुदत्त विशाला नगरीको ओर चल पड़ा। मार्गमही उसकी मामासे भंट हो गयो। दोनों जन प्रेमालिङ्गन कर एक दुसरेको बड़े प्रेमसे मिले। दोनों जनने अपना-अपना दुःख एक दूसरेको कह सुनाया और खेदपूर्वक अपनी अवस्थापर विचार करने लगे। इसी समय बलिदानके लिये दस पुरुषोंकी खोजमें निकले हुए चएडसेनके आदमी वहां आ पहुंचे और इन दोनोंको पकड़ लिया। इसके बाद और भी आठ मनुष्योंको पकड़ कर घे सबको साथ ले अपने नगरको लौट आये। जब एक महीना पूरा हो चला, तब चण्डसेन अपने मनमें कहने लगा,-"आज महीना पूरा हो जायगा, किन्तु खेद है कि ब्रह्मदत्तका कहीं पता न चला। और, उसका पता चले या न चले, मैंने दस पुरुषोंके बलिदानकी जो मानता की है, उसे तो आज अवश्यही पूरी करूंगा।" ___ यह सोचकर यएडसेनने सेवकोंको देवोके सम्मुख : उन दसों पुरुषोंका बलिदान करनेकी आमाः दे दी। उस समय वे लोग प्रियदर्शनाको भी पुत्र के साथ देवीको प्रणाम करानेके लिये यहां ले गये। प्रियदर्शनाः देवीको वन्दन कर अपने मनमें सोचने लगी, कि यह कितने दुःखकी बात है कि प्रावक कुलमें जन्म