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* सप्तम सर्ग *
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लिये चल पड़ा । शाम के वक्त अवसर मिलते ही वह उस बालकको उठा ले गया । नगरके बाहर एक जोर्ण और शुष्क बगीचा था, जिसमें एक आमका वृक्ष और कुआं भी था । वहींपर चण्डने उस बालकका वध करना स्थिर किया । किन्तु वध करने के पहले ज्योंही उस बालकको उसने अच्छा तरह देखा, त्योंहा चन्द्र सा निर्दोष मुख देख कर उसका चित्त विचलित हो उठा। उसके हाथ पैर ढीले पड़ गये । वह अपने मनमें कहने लगा, – “ अहो ! इस पराधीनताको धिक्कार है । यदि आज मैं पराधीनताके बन्धनले बँधा न होता तो इस सुन्दर बालकका मुझे वध क्यों करना पड़ता ? निःसन्देह यह बालक बड़ा हो भाग्यमान मालूम होता है । यदि ऐसा न होता, तो इसके यहां आते ही यह ऊजड़ उद्यान हरा भरा क्यों हो जाता ? राजाने यद्यपि बड़ा कठोर आज्ञा दी है, तथापि, जो होना हो, वह हो- मैं अब इस देवतुल्य बालकका वध न करूंगा ।" इस प्रकार चण्डका कठोर हृदय भी उस बालक को देखकर पसीज गया । किन्तु अब उसे चिन्ता हो पड़ी कि अब इस बालकका क्या किया जाय और इसे किसके संरक्षयमें रखा जाय ? जन्तमें कोई उपाय न सूझनेपर, उसने उसे
देवताओंको सौंपकर वहीं छोड़ दिया। इसके बाद वह बारंबार उस बालक की ओर देखता हुआ नगरको लौट आया । राजाके पूछने पर उसने कह दिया, कि मैंने नगर के बाहर एक शून्य उद्यान में उसे मार डाला है । यह जानकर राजाको बड़ा हो आनन्द हुआ और वह अब निश्चिन्त हो पूर्ववत् राज-काज करने लगा ।