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* सप्तम सर्ग कहां पहुँचा दू?” यह सुन वयरसेनने कहा, "हे स्वामिन् ! यदि आप वास्तवमें मुझपर उपकार करना चाहते हैं तो मुझे यह दोनों पुष्प देकर काञ्चनपुर पहुँचा दीजिये। वयरसेनकी यह प्रार्थना सुन विद्याधरने उसे वे दोनों पुष्प देकर आकाश-मार्गसे तुरत काञ्चनपुर पहुंचा दिया। वहां पहुचने पर वह फिर पहलेकी तरह आनन्द करने लगा।
वयरसेनको फिर ऐसी अवस्थामें देख बुढ़ियाको बड़ा ही आश्चर्य हुआ। अब वह अपने घुटने और केहुनियोंपर पट्टी बांध, लकड़ी टेकती हुई फिर वयरसेनके पास पहुंची। उसे आते देख वयरसेनने कहा-"माता! हाथ-पैरमें क्या हुआ है ?” बुढ़ियाने रोते-कलपते हुए कहा-“हे वत्स ! क्या कहूँ ? ज्योंहीं तु कामदेवके मन्दिरमें पूजा करने गया, त्योंही वहाँ एक दुष्ट विद्याधर आ पहुंचा और तेरी पादुकायें उठाकर भागने लगा। यह देख मैंने उसका पल्ला पकड़ लिया। इससे उसके साथ मैं भी लटक गयी और अकाशमें लड़ने लगी। किन्तु यहां पहुंचने पर उसने जोरका धक्का देकर मुझे नीचे गिरा दिया। इससे मेरे हाथ पैर टूट गये, पर अब यह दुःख किससे कहूं ? जो दुःख सिरपर आ पड़ा है, उसे बरदास्त करना ही होगा। अब तू आ गया सो बहुत हो अच्छा हुआ। तुझे देखते हो मेरे सब दुःख दूर हो गये।" इस तरहकी बातें कह कर वह वयरसेनको फिर अपने घर लिवा ले गयी। वयरसेन भी फिर अपनी प्रेमिका मगधाके साथ सानन्द जीवन व्यतीत करने लगा।