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* पार्श्वनाथ चरित्र #
उठा कर कहीं अन्यत्र रख दिया। जब शुको लौट कर आयी, तो उसे अपना अण्डा दिखायी न दिया । इससे वह भूमिपर लोटने और विलाप करने लगी । यह देखकर पहली शकीको पश्चाताप हुआ और उसने उसका अण्डा फिर वहीं रख दिया। दूसरी शुकी जब रो-धोकर अपने घोंसलेमें वापस आयी, तब वहां भण्डेको देखकर उसे असीम आनन्द हुआ। पहली शुकीके गले इस घटना के कारण दारुण कर्म बंधा । यद्यपि पश्चाताप करनेसे उसका बहुतसा अंश क्षय हो गया फिर भी एक जन्म तक भोग करनेको बाकी रह ही गया ।
यथा समय शुकीके दो अण्डोंसे एक शुकी और एक शुभका जन्म हुआ। वे दोनों वनमें क्रीड़ा करने लगे । शुक और शुकी दोनों अपनी चंचुओं में शालिक्षेत्रले बाबल लाते और अपने इन wist नुगाकर आनन्द मनाते ।
एक बार चारण श्रमण मुनि आदिनाथ भगवान के प्रासादमें आ कर, प्रभुको नमस्कार कर इस प्रकार स्तुति करने लगे- “हे तीन भुवनोंके अधीश ! हे संसार तारक ! आपकी जय हो । हे अनन्त सुखके निधान ! हे ज्ञानके महासागर! आपकी जय हो। इस प्रकार स्तुति और वन्दना कर मुनिने शुद्ध भूमिपर प्रमार्जन कर स्थान ग्रहण किया । इसी समय राजा भी वहां आ पहुंचा और उसने जिनेश्वरकी पूजा और वन्दना की । तदनन्तर मुनिको वन्दन कर राजाने पूछा - "हे भगवन् ! जिन पूजाका फल क्या है ?" मुनिने कहा- "राजन् ! जिनेश्वरके सम्मुख अखण्ड अक्ष
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