Book Title: Parshwanath Charitra
Author(s): Kashinath Jain Pt
Publisher: Kashinath Jain Pt

View full book text
Previous | Next

Page 535
________________ ४८८ •पार्श्वनाथ-चरित्र * पुत्र हुमा है। पतिकी यह बात सुन पत्नीने कहा,-"नाथ! एक तो दुदैवकी अकृपाके कारण मुझे पुत्र नहीं होता और उसीसे मेरा ओ दुःखी रहता है, तिसपर भाप इस प्रकार हंसी कर रहे हैं।" विद्याधरने हँसकर फहा,-"प्रिये ! मैं हँसी नहीं करता । यह देश वास्तवमें रत्नके समान बालक तेरी बगलमें सो रहा है। यही भव हमारा पुत्र है। रानीने अब उठ कर पुत्रको देखा। देखते हो उसे इतना आनन्द हुमा, मानो तीनों लोकका राज्य मिल गया हो। उसने उस पुत्रको गलेसे लगा लिया। दोनों बड़े प्रेमसे उसे साथ लेकर अपने नगरमें आये और पुत्रवत् उसका बालन-पालन करने लगे। इधर रतिसुन्दरीने देवी मन्दिरमें पहुंच कर, प्रसन्नता पूर्वक उस बालकको उठाया और उसे देवीके सिरपर उतार कर उनके सामने पटक दिया। इस तरह अपना मनोरथ पूर्ण कर रतिसुन्दरी अपने महलको लौट आयी। इधर जयसुन्दरी पुत्रके वियोगसे दुःखपूर्वक काल निर्गमन करने लगी। उधर काञ्चनपुरके विद्याधरने उस बालकका नाम मदनांकुर रखा। यथा समय विविध विद्या भौर कलाओंका सम्पादन कर उस बालकने यौवन प्राप्त किया। एक दिकी बात है, वह आकाशगामिनी विद्या द्वारा आकाशमार्गसे कहीं जा रहा था। उस समय उसकी माता जयसुन्दरी महलके झरोखे में बैठी हुई थी। उसपर दृष्टि पड़ते हो मदनांकुरके हृदयमें कुछ स्नेह भाव उत्पन्न हुआ, फलतः उसने उसे :उठाकर अपने विमानमें बैठा लिया।

Loading...

Page Navigation
1 ... 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608