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* षष्ठ सर्ग*
दी है।” यह सुन राजकुमारोंने कहा-“पिताजी ! कहां सेवाल, कहां आप? कहां शृगाल और कहां सिंह ? उसको दण्ड देनेके लिये आपका शस्त्र धारण करना ठीक नहीं। कहा भी है कि
"यद्यपि रति सरोष, मृगपति पुरतोपि मत्तगोमायुः ।
तदपि न कुर्यात सिंहोऽसदृश पुरुषेषु कः कोपः॥" अर्थात्- “उन्मत्त सियार सिंहके सम्मुख शोर मचाता है, तब भी सिंह कुपित नहीं होता, क्योंकि असमान जनोंपर कोप कैसा?"
राजाने कहा-“यह ठोक है, पर सेवाल बड़ा ही दुष्ट और नीच प्रकृतिका मनुष्य है। उसे सीधा करना बहुत ही कठिन है । किसीने कहा भी है कि--- _ "यद्यपि मृगमद चन्दन, कु कुम कर्पू रवेष्टितो लसुनः।
तदपि न मुञ्चति गंध, प्रकृतिगुणा जाति दोषेण ॥" अर्थात्-- "लहसुनको कस्तूरी, चन्दन कुंकुम और कपूरसे लपेटकर रखनेपर भी उसकी दुर्गन्ध दूर नहीं होती, क्योंकि जाति दोषके कारण स्वभाव और गुण ज्योंका त्यों बना रहता है।”
पिताकी यह बात सुनकर कुमारोंने कहा-“हे तात! हमें आज्ञा दीजिये। उस आभमानीका मानमर्दन करनेके लिये हम ही पर्याप्त हैं । जो काम सेवकोंसे हो सकता हो, उसके लिये खामीको कष्ट क्यों उठाना चाहिये ?" कुमारोंका यह वचन सुन कर मन्त्रीने कहा-“हे राजेन्द्र ! कुमारोंका कहना ठीक है। जब