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* सप्तम सर्ग
४३१ जितनी तेरी प्रियतमा प्यारी है, उससे कहीं अधिक मुझे मेरा पुत्र प्यारा है। तुम दोनों आनन्द कर रहे हो और मैं दुःख सागरमें डूब रहा हूं।" कनकका यह विलाप शुकीसे सुना न गया। वह शुकसे कहने लगी,—"हे नाथ! जिस पुरुषके कारण मेरा दोहद पूर्ण हुआ है, वही इस समय कष्टमें आ पड़ा है। इसलिये हे स्वामिन् ! यदि इस वणिकके जीनेका कोई उपाय हो तो अवश्य बतलाइये । शुकने कहा, "हे प्रिये ! उपाय केवल एक ही है। यदि हरे नारियलका धुआं नागको दिया जाय, तो दुर्विनोतका श्वास उसके शरीरमें वापस आ सकेगा और वह सजीवन हो उठेगा। साथही एक प्रहरके बाद नाग भी जी उठेगा। इसके अतिरिक्त दुर्विनीतको बचानेका और कोई उपाय नहीं है। यह सुनकर कनक तुरत एक हरा नारियल ले आया और उसकी छाल जला कर उसकी धुनी सांपको दी । इससे दुर्विनीत तत्काल जीवित हो उठा और सावधानी पूर्वक वृक्षसे नीचे उतर आया। यह देखकर कनक उसे वारंबार आलिङ्गन और चुम्बन करने लगा। पिताको इस तरह असाधारण प्यार करते देख दुर्विनोतने पूछा,-"पिताजी ! आज क्या है, जो आप मुझे बारंबार हृदयसे लगा रहे हैं ?" दुर्विनीतका यह प्रश्न सुनकर कनकने उसे सारा हाल कह सुनाया। साथही उसे यह भी बतलाया, कि वह जिस शुकको मारने जा रहा था, उसीने उसका प्राण बचाया है।
पिताकी यह बात सुनकर दुर्विनीतको बड़ा आनन्द हुआ और वह बारम्बार स्नेह दृष्टिसे उस शुकको देखकर कहने लगा,