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* सप्तम सर्ग. ही दिनोंमें समस्त विद्या और कलाओंमें पार दर्शिता प्राप्त कर ली। इससे राजा-प्रजा सभी उनको देख कर प्रसन्न होते थे। किन्तु विमाता जया उनपर द्वेष भाव रखती थी।
एक दिन राजा शूरसेन किसो कार्यवश कहीं बाहर गया था। उस समय दोनों भाई महलके नीचे गेंद खेल रहे थे। खेलतेखेलते वह गेंद सौतेली माताके महलमें जा गिरा। इसलिये उसने उसे उठा कर रख लिया। जब वयरसेन गंद लेने गया, तो उसका रूप और यौवन देख कर उसके मनमें कामोद्रेक हो आया। इससे उसने वयरसेनको अपने प्रेम जालमें फंसानेको चेष्टा की; किन्तु इसमें वह सफल न हो सकी। उसी समय वयरसेन हाथ पैर जोड़, क्षमा प्रार्थना कर, अपना गेंद लेकर चला आया, और उसने अपने भाईसे यह सारा हाल कह दिया। इधर दोनों भाई खेलकूद कर भोजनादि करने लगे और उधर जया रानी उनसे बदला लेनेका सामान करने लगी। आने वस्त्रों को चीर फाड़ कर वह एक टूटी खाटपर सो रही। जब शूरसेन वापस आया और उसने जयाकी यह अवस्था देखी तो उसे बड़ा ही आश्चर्य हुआ। वह उससे पूछने लगा-"प्यारी! आज यह क्या मांजरा है ?" जयाने कहा,-"स्वामिन् ! आपके दोनों पुत्रोंने आज मुझे इस प्रकार सताया है कि मुझसे कुछ कहते-सुनते नहीं बनता। बड़ी कठिनाईसे मैं अपनी लाज बचा सकी हूँ। मेरे सब कपड़े उन्होंने फाड़ डाले और मेरी बड़ी दुर्गति की।" जयाकी यह सब बातें शूरसेनने सत्य मान लीं । अपने पुत्रोंपर
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