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* सप्तम सर्ग *
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यह सुन अभयंकरने कहा, – “तुम लोगोंके पास नाम मात्रके लिये भी कुछ है या नहीं ?” ग्वालेने कहा, “हां, मेरे पास पांच कौड़िये हैं । यह सुन अभयं करने कहा, "अच्छा, तु उन कौड़ियोंके पुष्प ले आ और भावपूर्वक जिनपूजा कर।" यह देखकर दूसरा सेवक सोचने लगा- “ इसके पास तो इतना भी है, पर मेरे पास तो कुछ भी नहीं है ।" यह सोचकर वह दुःखित होने लगा । इसके बाद अभयंकर उन दोनोंको लेकर गुरु वन्दन करने गया। वहां गुरु महाराजका धर्मोपदेश सुनते हुए प्रत्याख्यान करनेवाले किसी मनुष्को देखकर उस सेवकने गुरुसे पूछा कि इसने यह क्या किया ? गुरुने कहा - "हे भद्र ! आज इसने पौषध किया है । उसीका यह प्रत्याख्यान ले रहा है । यह सुनकर उसने उपवासका प्रत्य. ख्यान लिया। इसके बाद वे दोनों अपने मालिकके साथ घर लौट आये ।
भोजनका समय होनेर उपवास करनेवालेने थालीमें अपना अन्न परोसना लिया, किन्तु भोजन न कर वह द्वारके पास खड़ा रहकर सोचने लगा, -"यदि सौभाग्यवश कोई मुनि यहांसे आ निकले, तो मैं उन्हें यह भोजन दान कर दूं । इसे दान करनेके
लये मैं पूर्ण अधिकारी हूँ, क्योंकि मैंने इसे अपने परिश्रमके बदलेमें लिया है ।" जिस समय वह यह बातें सोच रहा था, उसी समय वहाँ एक मुनि आ पहुंचे। उनके आते ही उसने वह सब भोजन मुनिको दे दिया। सेवकका यह कार्य देखकर अभयंकर सेठ को बड़ा ही आनन्द हुआ। उसने उस सेवकके लिये फिरसे भोजन