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* पार्श्वनाथ-चरित्र * जिस तरह हो मुझे इन दोनोंको युद्ध करनेसे रोकना चाहिये। सोचकर कई साध्विओंके साथ वह सुदर्शनपुरमें नमिराजाके पास गयी। वहाँ नमिराजाने उसे आते देख विनय पूर्वक वन्दन किया एवं उसको उच्च आसनपर बैठाकर आप उनके चरणोंके पास भूमि पर बैठ गया। पश्चात् साध्विओंने उसे धर्म लाभ दे, समझाते हुए कहा कि,—“हे राजन् ! यह राज्य लक्ष्मी असार है। जोव हिंसा से प्राणियोंको अवश्य ही नरककी प्राप्ति होती है। इसलिये युद्ध करनेका विचार छोड़ दे। इसके अतिरिक्त बड़े भाईसे युद्ध करना तो बिलकुल असंगत है ।" यह सुन नमिराजाने कहा—"हे देवि! चन्द्रयशा मेरा बड़ा भाई कैसे हुआ ?” सुव्रताने अब नमिराजाको सारा वृत्तान्त कह सुनाया और प्रमाणके लिये उस कम्मलको, जो उसे ओढ़ाया था और उस मुद्रिकाकी निशानी बतलायी। इससे सुव्रताके कथनको पुष्टि हो गयो और नमिराजाको विश्वास हो गया, कि सुव्रता जो कह रही हैं, वह अक्षरशः सत्य है। फिर भी वह मानके कारण युद्धको बन्द करनेके लिये तैयार न हुआ। - इसके बाद साध्वी सुव्रता चन्द्रयशाके पास गयी। वह उसे देखते ही पहचान गया। उसी समय उसने सुव्रताको उच्च आसन देकर नम्रता पूर्वक वन्दन किया। यह देख उसके परिवारने भी आदरपूर्वक सुव्रताको बन्दन किया। इस प्रकार सुव्रताका समुचित सत्कार करनेके बाद चन्द्रयशाने कहा-“हे भगवति ! आपको यह उग्रव्रत क्यों धारण करना पड़ा।" पुत्रका यह प्रश्न सुनकर सुव्रताने उसे सारा हाल ज्यों-का-त्यों कह सुनाया।