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नगरीमें लौट आया और मन्त्रियोंको बुलाकर उनके सम्मुख कंडरीकसे कहा - " हे वत्स ! मैंने ऐश्वर्य भी भोग किया और प्रजापालन भी किया, राजाओंको वश कर अनेक देशोंको अधिकृत किया, देवगुरुकी पूजा की, गृहस्थ धर्मका पालन किया, स्वजनोंका सत्कार किया और अर्थों जनोंकी इच्छा पूर्ण कर यश भी उपार्जन किया। अब मेरा यौवन व्यतीत हो चला, वृद्धावस्था समीप आती जा रही है और मृत्युभो कटाक्षदृष्टिसे मुझे देखा करती है। प्राणियोंको जन्म और मरणकी व्याधि सदा ही लगी रहती हैं इसलिये यह संसार उन्हें विडम्बना मय हो पड़ता है । गुरुदेवका धर्मोपदेश सुन मुझे वैराग्य आ गया है, इसलिये अब तुम यह गुरुतर भार ग्रहण करो और नीतिपूर्वक प्रजाका पालन करो । मैं किसी सद्गुरुके निकट दीक्षा ग्रहण करूंगा ।”
पुंडरीककी यह बात सुन कंडरीकने कहा - "हे बन्धु ! क्या आप चाहते हैं कि मैं सदा भवसागर में ही भ्रमण करता रहूं ? मैंने भी धर्मोपदेश सुना है और मैं भी दीक्षा ग्रहण कर अपना जन्म सार्थक करना चाहता हूँ ।"
* षष्ठ सर्ग
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भाईकी यह बात सुन पुंडरीकने कहा - " चारित्र दुष्कर है । उसमें भी सब जीवोंपर समभाव युक्त, दया रखना, सदा सत्य बोलना, तृणमात्र भी अदत्त न लेना, सदा ब्रह्मचर्य पालन करना, परिग्रहका सर्वथा त्याग करना, रात्रिमें चारों आहारोंका त्याग करना, बयालिस दोष रहित आहार ग्रहण करना, चौदह प्रकारके उपकरण धारण करना, किसी भी वस्तुका संचय न करना, गृह