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* षष्ठ सर्ग*
४१६ समीप हो हू', हिंसा, असत्य, अदत्त, मैथुन, परिग्रह, रात्रिभोजन क्रोध, मान, माया, लोभ, राग द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, रति, अरति, परनिन्दा, मायामृषावाद और मिथ्यात्वशल्य इन अठारह पापस्थानोंका त्याग करता हूँ। साथ ही यह शरीर लालित, पालित और बहुकालसे सुरक्षित होनेपर भी इसका मैं त्याग करता हूं। इस प्रकार भावरूपी जलसे आत्माके पापको धोकर पुंडरीक मुनिने इस शरोको त्याग दिया और पांचवे अनुत्तर विमानमें उत्तम देवत्वको प्राप्त किया।
हे भव्य प्राणियो! इस प्रकार भाव धर्मको महिमा जानकर समस्त धर्म कार्यों में भावको प्रधानता देनी चाहिये ।”
श्री पार्श्वनाथ प्रभुका यह धर्मोपदेश सुन अनेक लोगोंने चारित्र ग्रहण किया। अनेकोंने श्रावक धर्म स्वीकार किया। अनेकोंने सम्यक्त्व प्राप्त किया और अनेक भद्रक भावी हुए। अश्वसेन राजाने भी भगवानका धर्मोपदेश सुनकर हस्तिसेन नामक अपने पुत्रको राज्य भार सौंपकर दीक्षा ग्रहण कर ली। यह देख वामादेवो और प्रभावतीने भी भावपूर्वक दीक्षा अङ्गीकार कर ली।
उस समय भगवानने दस गणधरोंकी स्थापना की। उनके नाम इस प्रकार थे-(१) आर्यदत्त (२) आर्यघोष (३) विशिष्ट (४) ब्रह्म (५) सोम (६ ) श्रीधर (७) वीरसेन (८) भद्रयशा (६) जय और (१०) विजय । इन दस गणधरोंको भगवानने उत्पाद, विगम और धौव्यरूप त्रिपदी सुनायी । इसे सुनकर गण